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________________ ३४६ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ( शार्दूलविक्रीडित ) सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तु क्षमन्ते परं यद्वजेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि। सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि ।। १५४ ।। अब, इसी अर्थका समर्थक और आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :-- श्लोकार्थ:- [ यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि ] जिस के भयसे चलायमान होते हुवे - ( खलबलाते हुवे ) - तीनों लोक अपने मार्गको छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी, [ अमी] ये सम्यग्दृष्टि जीव, [निसर्गनिर्भयतया ] स्वभावत: निर्भय होनेसे, [ सर्वाम् एव शङ्कां विहाय ] समस्त शंकाको छोड़कर, [ स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] स्वयं अपनेको (आत्माको ) जिसका ज्ञानरूपी शरीर अबध्य है ऐसा जानते हुए, [ बोधात् च्यवन्ते न हि ] ज्ञानसे च्युत नहीं होते । [ इदं परं साहसम् सम्यग्दृष्टयः एव कर्तु क्षमन्ते ] ऐसा परम साहस करनेके लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ है। भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि जीव निःशंकितगुणयुक्त होते हैं इसलिये चाहे जैसे शुभाशुभ कर्मोदय के समय भी वे ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं। जिसके भयसे तीनों लोकके जीव काँप उठते हैं-चलायमान हो उठते हैं और अपना मार्ग छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होनेपर भी सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूपको ज्ञानशरीरी मानता हुआ ज्ञानसे चलायमान नहीं होता। उसे ऐसी शंका नहीं होती कि इस वज्रपातसे मेरा नाश हो जायेगा ; यदि पयार्यका विनाश हो तो ठीक ही है क्योंकि उसका तो विनाशीक स्वभाव ही है । १५४ । अब इस अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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