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निर्जरा अधिकार
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(शार्दूलविक्रीडित) त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किंत्वस्यापि कुतोऽपि किञ्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत्। तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः।। १५३ ।।
इसप्रकार अज्ञानी फलकी वांछासे कर्म करता है इसलिये वह फलको प्राप्त होता है और ज्ञानी फलकी वांछा बिना ही कर्म करता है इसलिये वह फलको प्राप्त नहीं करता।
अब, “जिसे फलकी इच्छा नहीं है वह कर्म क्यों करे ?” इस आशंका को दूर करने के लिये काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [येन फलं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः ] जिसने कर्मका फल छोड़ दिया है वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते। [किन्तु] किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि- [अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत् ] उसे (ज्ञानीको) भी किसी कारणसे कोई ऐसा कर्म अवशतासे (-उसके वश बिना) आ पड़ता है। [तस्मिन् आपतिते तु] उसके आ पड़ने पर भी, [अकम्प–परम-ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी] जो अकंप परमज्ञानस्वभावमें स्थित है ऐसा ज्ञानी [ कर्म ] कर्म [ किं कुरुते अथ किं न कुरुते ] करता है या नहीं [इति कः जानाति ] यह कौन जानता है ?
भावार्थ:-ज्ञानीके परवशतासे कर्म आ पड़ता है तो भी वह ज्ञानसे चलायमान नहीं होता। इसलिये ज्ञानसे अचलायमान वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ? ज्ञानीकी बात ज्ञानी ही जानता है। ज्ञानीके परिणामोंको जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीकी नहीं है।
अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊपरके सभी ज्ञानी ही समझना चाहिये। उनमेंसे, अविरत सम्यग्दृष्टि , देशविरत सम्यग्दृष्टि और आहारविहार करते हुए मुनिओंके बाह्यक्रियाकर्म होते हैं, तथापि ज्ञानस्वभावसे अचलित होनेके कारण निश्चयसे वे, बाह्यक्रियाकर्मके कर्ता नहीं हैं, ज्ञानके ही कर्ता हैं। अंतरंग मिथ्यात्वके अभावसे तथा यथासंभव कषायसे अभावसे उनके परिणाम उज्ज्वल हैं। उस उज्ज्वलताको ज्ञानी ही जानते हैं, मिथ्यादृष्टि उस उज्ज्वलताको नहीं जानते। मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा हैं, वे बाहरसे ही भला-बुरा मानते हैं; अंतरात्माकी गति बहिरात्मा क्या जाने ? १५३।
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