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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३४४ यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानम्। तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२६ ।। एवमेव सम्यग्दृष्टि: विषयार्थ सेवते न कर्मरजः। तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२७ ।। यथा कश्चित्पुरुषो फलार्थ राजानं सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति, तथा जीवः फलार्थ कर्म सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं ददाति। यथा च स एव पुरुषः फलार्थ राजानं न सेवते ततः स राजा तस्य फलं न ददाति, तथा सम्यग्दृष्टि: फलार्थ कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददातीति तात्पर्यम्। [पुनः ] और [यथा] जैसे [ सः एव पुरुषः] वही पुरुष [वृत्तिनिमित्तं] आजीविका के लिये [ राजानम् ] राजाकी [न सेवते ] सेवा नहीं करता [ तद् ] तो [ सः राजा अपि] वह राजा भी उसे [ सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न करनेवाले [विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [ न ददाति] नहीं देता, [ एवम् एव ] इसीप्रकार [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ विषयार्थ] विषयके लिये [ कर्मरजः] कर्मरजकी [न सेवते] सेवा नहीं करता [ तद् ] इसलिये [ तत् कर्म] वह कर्म भी उसे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न करनेवाले [ विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [न ददाति ] नहीं देता। टीका:-जैसे कोई पुरुष फल के लिये राजा की सेवा करता है तो वह राजा उसे फल देता है, इसीप्रकार जीव फलके लिये कर्मकी सेवा करता है तो वह कर्म उसे फल देता है। और जैसे वही पुरुष फलके लिये राजा की सेवा नहीं करता तो वह राजा उसे फल नहीं देता, इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि फलके लिये कर्मकी सेवा नहीं करता इसलिये वह कर्म उसे फल नहीं देता। यह तात्पर्य है।। भावार्थ:-यहाँ एक आशय तो इसप्रकार है:---अज्ञानी विषयसुखके लिये अर्थात् रंजित परिणामके लिये उदयागत कर्मकी सेवा करता है इसलिये वह कर्म उसे ( वर्तमानमें) रंजित परिणाम देता है। ज्ञानी विषयसुखके लिये अर्थात् रंजित परिणामके लिये उदयागत कर्मकी सेवा नहीं करता इसलिये वह कर्म उसे रंजित परिणाम उत्पन्न नहीं करता। दूसरा आशय इसप्रकार है:-अज्ञानी सुख (-रागादिपरिणाम उत्पन्न करनेवाले आगामी भोगोंकी अभिलाषासे व्रत, तप इत्यादि शुभ कर्म करता है इसलिये वह कर्म उसे रागादिपरिणाम उत्पन्न करनेवाले आगामी भोगोंको देता है। ज्ञानीके सम्बन्धमें इससे विपरीत समझना चाहिये। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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