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पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं । तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२४ ।। एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सो विदेदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ।। २२५ ।। जह पुण सो चि पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । तो सोण देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ।। २२६ ।। एमेव सम्मदिट्ठी विसयत्थं सेवदे ण कम्मरयं । तो सोण देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२७ ।। पुरुषो यथा कोऽपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानम् । तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२४ ।। एवमेव जीवपुरुषः कर्मरजः सेवते सुखनिमित्तम् । तत्तदपि ददाति कर्म विविधान् भोगान सुखोत्पादकान्।। २२५ ।।
अब इस अर्थको दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं : ---
ज्यों जगतमें को पुरुष, वृत्तिनिमित्त सेवे भूपको । तो भूप भी सुखजनक विधविध भोग देवे पुरुषको ।। २२४ ।। त्यों जीवपुरुष भी कर्मरजका सुखअरथ सेवन करे । तो कर्म भी सुखजनक विधविध भोग देवे जीवको ।। २२५ ।। अरु वो ही नर जब वृत्तिहेतु भूपको सेवे नहीं ।
तो भूप भी सुखजनक विधविध भोगको देवे नहीं ।। २२६ ।। सहष्टिको त्यों विषय हेतू कर्मरजसेवन नहीं ।
तो कर्म भी सुखजनक विधविध भोगको देता नहीं ।। २२७ ।।
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गाथार्थ:- [ यथा ] जैसे [ इह ] इस जगतमें [ क: अपि पुरुषः ] कोई भी पुरुष [ वृत्तिनिमित्तं तु] आजीविकाके लिये [ राजानम् ] राजाकी [ सेवते ] सेवा करता है [ तद् ] तो [ सः राजा अपि ] वह राजा भी उसे [ सुखोत्पादकान्] सुख उत्पन्न करनेवाले [ विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [ ददाति ] देता है, [एवम् एव ] इसीप्रकार [जीवपुरुषः ] जीवपुरुष [ सुखनिमित्तम् ] सुखके लिये [ कर्मरजः ] कर्मरजकी [ सेवते ] सेवा करता है [ तद् ] तो [ तत् कर्म अपि ] वह कर्म भी उसे [ सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न करनेवाले [ विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [ ददाति ] देता है।
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