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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३४२ (शार्दूलविक्रीडित) कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कमैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः। ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा । कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः।। १५२ ।। [ तत् किं ते कामचारः अस्ति] तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है ? [ ज्ञानं सन् वस] तू ज्ञानरूप होकर (-शुद्ध स्वरूपमें) निवास कर, [अपरथा] अन्यथा (यदि भोगनेकी इच्छा करेगा-अज्ञानरूप परिणमित होगा तो) [ध्रुवम् स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि ] तू निश्चयतः अपने अपराधसे बंधको प्राप्त होगा। भावार्थ:-ज्ञानीको कर्म तो करना ही उचित नहीं है। यदि परद्रव्य जानकर भी उसे भोगे तो यह योग्य नहीं है। परद्रव्यके भोक्ता को तो जगतमें चोर कहा जाता है, अन्यायी कहा जाता है। और जो उपभोगसे बंध नहीं कहा सो तो, ज्ञानी इच्छाके बिना ही परकी जबरदस्तीसे उदयमें आये हुए को भोगता है वहाँ उसे बंध नहीं कहा। यदि वह स्वयं इच्छासे भोगे तब तो स्वयं अपराधी हुवा, और तब उसे बंध क्यों न हो ? १५१। अब आगे की गाथाका सूचकरूप काव्य कहते हैं :--- श्लोकार्थ:- [ यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफलेन बलात् नो योजयेत् ] कर्म ही उसके कर्ताको अपने फलके साथ बलात् नहीं जोड़ता (कि तू मेरे फल को भोग), [फललिप्सुः एव हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फलं प्राप्नोति] *फलकी इच्छावाला ही कर्म को करता हुआ कर्मके फलको पाता है; [ज्ञानं सन् ] इसलिये ज्ञानरूप रहता हुआ और [ तद्अपास्त-रागरचनः ] जिसने कर्मके प्रति रागकी रचना दूर की है ऐसा [ मुनिः] मुनि, [ तत्-फल-परित्याग-एक-शील:] कर्मफलके परित्यागरूप ही एक स्वभाववाला होनेसे , [कर्म कुर्वाण: अपि हि] कर्म करता हुआ भी [ कर्मणा नो बध्यते] कर्मसे नहीं बँधता। भावार्थ:-कर्म तो बलात् कर्ताको अपने फलके साथ नहीं जोड़ता किन्तु जो कर्मको करता हआ उसके फलकी इच्छा करता है वही उसका फल पाता है। इसलिये जो ज्ञानरूप वर्तता है और बिना ही रागके कर्म करता है वह मुनि कर्मसे नहीं बँधता क्योंकि उसे कर्मफलकी इच्छा नहीं है। १५२। * कर्मका फल अर्थात् [१] रंजित परिणाम, अथवा [२] सुख [-रंजित परिणाम ] को उत्पन्न करनेवाले आगामी भोग । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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