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निर्जरा अधिकार
३४१
ततो ज्ञानिनः परापराधनिमित्तो नास्ति बन्धः। यथा च यदा स एव शंख: परद्रव्यमुपभुजानोऽनुपभुजानो वा श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते तदास्य श्वेतभावः स्वयंकृत: कृष्णभावः स्यात्, तथा यदा स एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुजानोऽनुपभुञ्जानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमते तदास्य ज्ञानं स्वयंकृतमज्ञानं स्यात्। ततो ज्ञानिनो यदि (बन्धः) स्वापराधनिमित्तो बन्धः।
(शार्दूलविक्रीडित) ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किञ्चित्तथाप्युच्यते भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाधुवम्।। १५१ ।।
इसलिये ज्ञानीको दूसरेके अपराधके निमित्तसे बंध नहीं होता।
__ और जब वही शंख, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, श्वेतभाव को छोड़कर स्वयमेव कृष्णरूप परिणमित होता है तब उसका श्वेतभाव स्वयंकृत कृष्णभाव होता है (स्वयमेव किये गये कृष्णभावरूप होता है), इसीप्रकार जब वही ज्ञानी, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, ज्ञानको छोड़कर स्वयमेव अज्ञानरूप परिणमित होता है तब उसका ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान होता है। इसलिये ज्ञानीके यदि बंध हो तो वह अपने ही अपराधके निमित्तसे ( अर्थात् स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित हो तब ) होता है।
भावार्थ:-जैसे श्वेत शंख परके भक्षणसे काला नहीं होता किन्तु जब वह स्वयं ही कालिमारूप परिणमित होता है तब काला हो जाता है, इसीप्रकार ज्ञानी परके उपभोगसे अज्ञानी नहीं होता किन्तु जब स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित होता है तब अज्ञानी होता है और तब बंध करता है।
अब इसका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी, [ जातु किञ्चित् कर्म कर्तुम् उचितं न ] तुझे कभी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है [ तथापि] तथापि [ यदि उच्यते] यदि तू यह कहे कि [ परं मे जातु न, भुंक्षे] “परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँ", [ भोः दुर्भुक्तः एव असि ] तो तुझसे कहा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकार से भोगनेवाला है; [ हन्त] जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है यह महा खेद की बात है! [ यदि उपभोगत: बन्ध: न स्यात् ] “ यदि तू कहे कि 'सिद्धान्तमें यह कहा है कि परद्रव्य के उपभोगसे बंध नहीं होता इसलिये भोगता हूँ",
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