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समयसार
३४८
(शार्दूलविक्रीडित) एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः। नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५६ ।।
या परलोक- [तव न] तेरा नहीं है ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है [ तस्य तद्-भी: कुतः अस्ति ] इसलिये ज्ञानीको इस लोकका तथा परलोकका भय कहाँसे हो? [ सः स्वयं सततं शिरशङ्क: सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका (अपने ज्ञानस्वभावका ) सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:-'इस भवमें जीवन पर्यंत अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं ?' ऐसी चिंता रहना इहलोकका भय है। ‘परभवमें मेरा क्या होगा ?' ऐसी चिंताका रहना परलोकका भय है। ज्ञानी जानता है कि-यह चैतन्य ही मेरा एक, नित्य लोक है जो कि सदाकाल प्रगट है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लोक मेरा नहीं है। यह मेरा चैतन्यस्वरूप लोक किसीके बिगाड़े नहीं बिगड़ता। ऐसा जाननेवाले ज्ञानीके इस लोकका अथवा परलोकका भय कहाँसे हो? कभी नहीं हो सकता वह तो अपनेको स्वाभाविक ज्ञानरूप ही अनुभव करता है। १५५ ।
अब वेदनाभयका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक-बलात् ] अभेदस्वरूप वर्तते हुए वेद्य-वेदकके बलसे ( वेध और वेदक अभेद ही होते हैं ऐसी वस्तुस्थितिके बलसे) [ यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकुलैः सदा वेद्यते ] एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकुल पुरुषोंके द्वारा ( –ज्ञानियों के द्वारा) सदा वेदन में आता है, [ एषा एका एव हि वेदना] यह एक ही वेदना (ज्ञानवेदन) ज्ञानियोंके है। (आत्मा वेदक है और ज्ञान वेद्य है।) [ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदना एव हि न एव भवेत् ] ज्ञानीके दूसरी कोई आगत (-पुद्गलसे उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं, [ तद्-भीः कुतः] इसलिये उसे वेदनाका भय कहाँ से हो ? [ सः स्वयं सततं निरशंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:-सुखदुःखको भोगना वेदना है। ज्ञानीके अपने एक ज्ञानमात्र स्वरूपका ही उपभोग है। वह पुद्गलसे होनेवाली वेदनाको वेदना ही नहीं समझता, इसलिये ज्ञानीके वेदनाभय नहीं है। वह तो सदा निर्भय वर्तता हुआ ज्ञानका अनुभव करता है। १५६।
अब अरक्षाभयकां काव्य कहते हैं:
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