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निर्जरा अधिकार
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( शार्दूलविक्रीडित) यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः। अस्यात्राणमतो न किञ्चन भवेत्तगीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५७ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न यच्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः। अस्थागुप्तिरतो न काचन भवेत्तगीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५८ ।।
श्लोकार्थ:- [ यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्ता] जो सत् है वह नष्ट होता नहीं ऐसी वस्तुस्थिति नियमरूपसे प्रगट है। [ तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत् ] यह ज्ञान भी स्वयमेव सत् ( सत्स्वरूप वस्तु) है (इसलिये नाश
को प्राप्त नहीं होता), [ ततः अपरैः अस्य त्रातं किं] इसलिये परके द्वारा उसका रक्षण कैसा ? [ अतः अस्य किञ्चन अत्राणं न भवेत् ] इसप्रकार (ज्ञान निजसे ही रक्षित है इसलिये ) उसका किंचित्मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता [ ज्ञानिनः तद्-भी कुतः] इसलिये ( ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको अरक्षाका भय कहाँसे हो सकता ? [ सः स्वयं सततं निरशंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:-सत्तास्वरूप वस्तुका कभी नाश नहीं होता। ज्ञान भी स्वयं सत्तास्वरूप वस्तु है; इसलिये वह ऐसी नहीं है कि जिसकी दूसरोंके द्वारा रक्षा की जाये तो रहे, अन्यथा नष्ट हो जाये। ज्ञानी ऐसा जानता है इसलिये उसे अरक्षाका भय नहीं; वह तो निःशंक वर्तता हुआ स्वयं अपने स्वाभाविक ज्ञानका सदा अनुभव करता है। १५७।
अब अगुप्तिभयका काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति ] वास्तवमें वस्तुका स्व-रूप ही (निजरूप ही) वस्तुकी परम 'गुप्ति' है [ यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्त:] क्योंकि स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; [च ] और [ अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं ] अकृतज्ञान (-जो किसी के द्वारा नहीं किया गया है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान-) पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप है; (इसलिये ज्ञान आत्माकी परम गुप्ति है।) [ अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत् ] इसलिये आत्माकी किंचित्मात्र
भी
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