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________________ २६४ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार अथ रागाद्यसङ्कीर्णभावसम्भवं दर्शयति पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे | जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि ।। १६८ ।। पक्वे फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्तैः। जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ।। १६८ ।। यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सकृद्विश्लिष्टंः सत् न पुनर्वृन्तसम्बन्धमुपैति तथा कर्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृद्विश्लिष्टःसन् न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसङ्कीर्णो भावः सम्भवति। भावार्थ:- रागादिके साथ मिश्रित अज्ञानमय भाव ही बंधका कर्ता है, और रागादिके साथ अमिश्रित ज्ञानमय भाव बंधका कर्ता नहीं है - यह नियम है। अब, रागादिके साथ अमिश्रित भावकी उत्पत्ति बतलाते हैं: फल पक्व खिरता, वृंत सह संबंध फिर पाता नहीं । त्यों कर्मभाव खिरा, पुनः जीवमें उदय पाता नहीं ।। १६८ ।। गाथार्थः[ यथा] जैसे [ पक्वे फले ] पके हुए फलके [ पतिते ] गिरने पर [पुनः] फिरसे [फलं ] वह फल [ वृन्तैः ] उस डंठलके साथ [ न बध्यते ] नहीं जुड़ता, उसीप्रकार [ जीवस्य ] जीवके [ कर्मभावे ] कर्मभाव [ पतिते] खिर जानेपर वह [ पुनः] फिरसे [ उदयम् न उपैति ] उत्पन्न नहीं होता ( अर्थात् वह कर्मभाव जीवके साथ पुनः नहीं जुड़ता ) । टीका:-जैसे पाका हुआ फल एक बार डंठलसे गिर जाने पर फिर वह उसके साथ संबंधको प्राप्त नहीं होता, इसीप्रकार कर्मोदयसे उत्पन्न होनेवाला भाव जीवभावसे एकबार अलग होने पर फिर जीवभावको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार रागादिके साथ मिला हुआ ज्ञानमयभाव उत्पन्न होता है। भावार्थ:-यदि ज्ञान एकबार ( अप्रतिपाती भावसे) रागादिकसे भिन्न परिणमित हो तो वह पुन: कभी भी रागादिके साथ मिश्रित नहीं होता। इसप्रकार उत्पन्न हुआ, रागादिके साथ न मिला हुआ ज्ञानमय भाव सदा रहता है । फिर जीव अस्थिरतारूपसे रागादिमें युक्त होता है वह निश्चयदृष्टिसे युक्तता है ही नहीं और उसके जो अल्प बन्ध होता है वह भी निश्चयदृष्टिसे बंध है ही नहीं, क्योंकि अबद्धस्पृष्टरूपसे परिणमन निरंतर वर्तता ही रहता है। तथा उसे मिथ्यात्वके साथ रहनेवाली प्रकृतियोंका बंध नहीं होता और अन्य प्रकृतियाँ सामान्य संसारका कारण नहीं है; मूलसे कटे हुए वृक्षके हरे पत्तोंके समान वे प्रकृतियाँ शीघ्र ही सूखनेयोग्य हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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