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आस्रव अधिकार
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(शालिनी) भावो रागद्वेषमोहैर्विना यो जीवस्य स्याद् ज्ञाननिवृत्त एव। रुन्धन् सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौधान्
एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम्।।११४ ।। अथ ज्ञानिनो द्रव्यास्रवाभावं दर्शयति
पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।। १६९ ।।
पृथ्वीपिण्डसमानाः पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययास्तस्य। कर्मशरीरेण तु ते बद्धाः सर्वेऽपि ज्ञानिनः।। १६९ ।।
अब, “ज्ञानमय भाव ही भावात्रवका अभाव है' इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ जीवस्य ] जीवका [ यः] जो [ रागद्वेषमोहै: विना] रागद्वेषमोह रहित, [ज्ञाननिवृत्त: एव भावः] ज्ञानसे ही रचित भाव [ स्यात् ] है और [ सर्वान् द्रव्यकर्मास्रव-ओधान् रुन्धन् ] जो सर्व द्रव्यकर्मके आस्रव समूहको (अर्थात् थोकबंध द्रव्यकर्मके प्रवाहको) रोकनेवाला है, [एषः सर्व-भावास्रवाणाम् अभावः ] वह (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रवके अभावस्वरूप है।
भावार्थ:-मिथ्यात्व रहित भाव ज्ञानमय है। वह ज्ञानमय भाव रागद्वेषमोह रहित है और द्रव्यकर्मके प्रवाहको रोकनेवाला है; इसलिये वह भाव ही भावास्रवके अभावस्वरूप है।
संसारका कारण मिथ्यात्व ही है; इसलिये मिथ्यात्वसंबंधी रागादिका अभाव होनेपर, सर्व भावात्रवोंका अभाव हो जाता है यह यहाँ कहा गया है। ११४ ।
अब, यह बतलाते हैं कि ज्ञानीके द्रव्यास्त्रवका अभाव है :---
जो सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय, वर्तते हैं ज्ञानिके । वे पृथ्विपिंड समान हैं, कार्मणशरीर निबद्ध हैं ।। १६९ ।।
गाथार्थ:- [ तस्य ज्ञानिनः] उस ज्ञानीके [ पूर्वनिबद्धाः तु] पूर्वबद्ध [ सर्वे अपि] समस्त [ प्रत्ययाः ] प्रत्यय [ पृथ्वीपिण्डसमानाः ] मिट्टीके ढेलेके समान है [ तु] और [ ते ] वे [ कर्मशरीरेण ] ( मात्र) कार्मण शरीरके साथ [ बद्धाः ] बँधे हुए हैं।
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