________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
घातस्य , पुद्गलद्रव्यघाते तद्धातस्य दुर्निवारत्वात्। यत एवं ततो ये यावन्तः केचनापि जीवगुणास्ते सर्वेऽपि परद्रव्येषु न सन्तीति सम्यक् पश्यामः, अन्यथा अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते जीवगुणघातस्य च दुर्निवारत्वात्। यद्येवं तर्हि कुतः सम्यग्दृष्टेर्भवति रागो विषयेषु ? न कुतोऽपि। तर्हि रागस्य कतरा खानि: ? रागद्वेषमोहा हि जीवस्यैवाज्ञानमयाः परिणामाः, ततः परद्रव्यत्वाद्विषयेषु न सन्ति, अज्ञानाभावात्सम्यग्दृष्टौ तु न भवन्ति। एवं ते विषयेष्वसन्तः सम्यग्दृष्टेर्न भवन्तो, न भवन्त्येव।
पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यका घात होनेपर दर्शन-ज्ञान-चारिअका घात अवश्य ही होना चाहिए। ऐसा होनेपर जीवके जो जितने गुण हैं वे सब परद्रव्योंमें नहीं हैं यह हम भली भाँति देखते-मानते हैं ; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो, यहाँ भी जीवके गुणोंका घात होनेपर पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यके घात होनेपर जीवके गुणका घात होना अनिवार्य हो जाता है। (किन्तु ऐसा नहीं होता, इससे सिद्ध हुआ कि जीवके कोई गुण पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं।)
[प्रश्न:-] यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टिको विषयोंमें राग किस कारण से होता है ? [ उत्तर:-] किसी भी कारणसे नहीं होता। [प्रश्न:-] तब फिर रागकी खान ( उत्पत्ति स्थान) कौन सी है ? [ उत्तर:-] राग-द्वेष-मोह, जीवके ही अज्ञानमय परिणाम हैं (अर्थात् जीवका अज्ञान ही रागादिको उत्पन्न करने की खान है); इसलिये वे रागद्वेषमोह, विषयोंमें नहीं हैं क्योंकि विषय परद्रव्य हैं, और सम्यग्दृष्टिमें (भी) नहीं है क्योंकि उनके अज्ञानका अभाव है; इसप्रकार रागद्वेषमोह, विषयोंमें न होनेसे और सम्यग्दृष्टिके (भी) न होनेसे , ( वे ) हैं ही नहीं।
भावार्थ:-आत्माके अज्ञानमय परिणामरूप रागद्वेषमोह उत्पन्न होनेपर आत्मा के दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि गुणोंका घात होता है, किन्तु गुणोंके घात होनेपर भी अचेतन पुद्गलद्रव्य का घात नहीं होता; और पुद्गलद्रव्यके घात होनेपर दर्शनज्ञान-चारित्रादि का घात नहीं होता; इसलिये जीवके कोई भी गुण पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं। ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टिको अचेतन विषयोंमें रागादिक नहीं होते। रागद्वेषमोह पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं, वे जीवके ही अस्तित्वमें अज्ञानसे उत्पन्न होते हैं; जब अज्ञान का अभाव हो जाता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि होता है, तब राग-द्वेषादि उत्पन्न नहीं होते। इसप्रकार रागद्वेषमोह न तो पुद्गलद्रव्यमें हैं और न सम्यग्दृष्टिमें भी होते हैं, इसलिये शुद्धद्रव्यदृष्टिसे देखने पर वे हैं ही नहीं और पर्यायदृष्टिसे देखने पर वे जीव को अज्ञान-अवस्थामें हैं। ऐसा जानना चाहिये।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com