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समयसार
५१२
(मन्दाक्रान्ता) रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किञ्चित्। सम्यग्दृष्टि: क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटं तौ ज्ञानज्योतिर्व्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः।। २१८ ।।
(शालिनी) रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्ट्या नान्यव्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्।। २१९ ।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग-द्वेषौ भवति ] इस जगतमें ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है; [ वस्तुत्व-प्रणिहित-दृशा दृश्यमानौ तौ किञ्चित् न ] वस्तुत्वमें स्थापित ( -एकाग्र की गई) दृष्टि से देखने पर ( अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखने पर ), वे रागद्वेष कुछ भी नहीं है (-द्रव्यरूप पृथक वस्तु नहीं है)। [ ततः सम्यग्दृष्टि: तत्त्वदृष्ट्या तौ स्फुट क्षपयतु] इसलिये ( आचार्यदेव प्रेरणा करते हैं कि) सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टि से उन्हें ( रागद्वेषको) स्पष्टतया क्षय करो, [ येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति] कि जिससे, पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी ( दैदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो।
भावार्थ:-रागद्वेष कोई पृथक द्रव्य नहीं है, वे ( रागद्वेषरूप परिणाम) जीवके अज्ञानभावसे होते है; इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टि से देखा जाये तो वे ( रागद्वेष ) कुछ भी वस्तु नहीं हैं ऐसा दिखाई देता है, और घातिकर्मका नाश होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। २१८ ।
अब आगेकी गाथामें यह कहेंगे कि 'अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यको गुण उत्पन्न नहीं कर सकता' इसका सुचक काव्य कहते हैं :--
श्लोकार्थ:- [ तत्त्वदृष्ट्या ] तत्त्वदृष्टि से देखा जाये तो, [ राग-द्वेष-उत्पादक अन्यत् द्रव्यं किञ्चन अपि न वीक्ष्यते] रागद्वेषको उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता, [ यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति] क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अंतरंगमें अत्यंत प्रगट ( स्पष्ट) प्रकाशित होती है।
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