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समयसार
३९६
कॊतिषोऽत्यन्तमज्ञानादिरूपत्वाभावात् , शुभेनाशुभेन वा कर्मणा न खलु लिप्येरन्। किमेतदध्यवसानं नामेति चेत्बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं। एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो।। २७१ ।।
बुद्धिर्व्यवसायोऽपि च अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानम्। एकार्थमेव सर्व चित्तं भावश्च परिणामः ।। २७१ ।।
ऐसी अमंद अंततिको अज्ञानादिरूपताका अत्यंत अभाव होनेसे (अर्थात् अंतरंगमें प्रकाशित होती हुई ज्ञानज्योति किंचित् मात्र भी अज्ञानरूप, मिथ्यादर्शनरूप और अचारित्ररूप नहीं होती इसलिये),शुभ या अशुभ कर्मसे वास्तवमें लिप्त नहीं होते।
भावार्थ:-यह जो अध्यवसान हैं वे ' मैं परका हनन करता हूँ' इस प्रकारके हैं, 'मैं नारक हूँ' इसप्रकार के हैं तथा ' मैं परद्रव्यको जानता हूँ' इस प्रकारके हैं। वे, जबतक आत्माका और रागादिका, आत्माका और नारकादि कर्मोदयजनित भावोंका तथा आत्माका और ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योंका भेद न जाना हो, तबतक रहते हैं। वे भेदज्ञानके अभावके कारण मिथ्याज्ञानरूप है, मिथ्यादर्शनरूप है और मिथ्याचारित्ररूप है; यों तीन प्रकारके होते हैं। वे अध्यवसान जिनके नहीं है वे मुनिकुंजर हैं। वे आत्माको सम्यक् जानते हैं, सम्यक् श्रद्धा करते हैं और सम्यक् आचरण करते हैं, इसलिये अज्ञानके अभावसे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप होते हुए कर्मोसे लिप्त नहीं होते।
" यहाँ बारम्बार अध्यवसान शब्द कहा गया है, वह अध्यवसान क्या है उसका स्वरूप भलीभाँति समझमें नहीं आया ?” ऐसा प्रश्न होने पर, अध्यवसानका स्वरूप गाथामें कहते हैं:
जो बुद्धि , मति, अवसाय, अध्यवसान, अरु विज्ञान है। परिणाम, चित्त रु भाव-शब्दहि सर्व ये एकार्थ है ।। २७१।।
गाथार्थ:- [ बुद्धिः] बुद्धि , [ व्यवसाय: अपि च ] व्यवसाय, [ अध्यवसानं ] अध्यवसान , [ मतिः च ] मति, [ विज्ञानम् ] विज्ञान , [ चित्तं ] चित्त , [ भावः ] भाव [ च] और [ परिणामः ] परिणाम- [ सर्व] ये सब [ एकार्थम् एव ] एकार्थ ही हैं (-अर्थात् नाम अलग अलग हैं किन्तु अर्थ भिन्न नहीं हैं)।
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