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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव-अजीव अधिकार १२३ __ (शार्दूलविक्रीडित) वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः। इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम्।। ४२ ।। अब काव्य द्वारा यह समझाते हैं कि चेतनत्व ही जीवका योग्य लक्षण है: श्लोकार्थ:- [यतः अजीवः अस्ति द्वधा ] अजीव दो प्रकारके हैं- [ वर्णाद्यः सहितः] वर्णादिसहित [तथा विरहितः] और वर्णादिरहित; [ततः] इसलिये [अमूर्तत्वम् उपास्य] अमूर्तत्वका आश्रय लेकर भी ( अर्थात् अमूर्तत्वको जीवका लक्षण मानकर भी) [ जीवस्य तत्त्वं] जीवके यथार्थ स्वरूपको [ जगत् न पश्यति] जगत नहीं देख सकता;- [इति आलोच्य ] इसप्रकार परीक्षा करके [ विवेचकैः ] भेदज्ञानी पुरुषोंने [न अव्यापि अतिव्यापि वा] अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दूषणोंसे रहित [चैतन्यम् ] चेतनत्वको जीवका लक्षण कहा है [ समुचितं] वह योग्य है। [ व्यक्तं] वह चैतन्यलक्षण प्रगट है, [ व्यञ्जित-जीव-तत्त्वम् ] उसने जीवके यथार्थ स्वरूपको प्रगट किया है और [अचलं] वह अचल है-चलाचलता रहित, सदा विद्यमान है। [आलम्ब्यताम् ] जगत उसीका अवलंबन करो! ( उससे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है।) भावार्थ:-निश्चयसे वर्णादिभाव-वर्णादिभावोंमें रागादिभाव अन्तर्हित हैं-जीवमें कभी व्याप्त नहीं होते इसलिये वे निश्चयसे जीवके लक्षण हैं ही नहीं; उन्हें व्यवहारसे जीवका लक्षण माननेपर भी अव्याप्ति नामक दोष आता है क्योंकि सिद्ध जीवोंमें वे भाव व्यवहारसे भी व्याप्त नहीं होते। इसलिये वर्णादिभावोंका आश्रय लेनेसे जीवका यथार्थ स्वरूप जाना ही नहीं जाता। यद्यपि अमूर्तत्व सर्व जीवोंमें व्यप्त है तथापि उसे जीवका लक्षण मानने पर अतिव्याप्ति नामक दोष आता है, कारण कि पाँच अजीव द्रव्योंमेंसे एक पुद्गलद्रव्य के अतिरिक्त धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये चार द्रव्य अमूर्त होनेसे, अमूर्तत्व जीव में व्यापता है वैसे ही चार अजीव द्रव्योंमें भी व्यापता है; इसप्रकार अतिव्याप्ति दोष आता है। इसलिये अमूर्तत्वका आश्रय लेनेसे भी जीवका यथार्थ स्वरूप ग्रहण नहीं होता है। चैतन्यलक्षण सर्व जीवोंमें व्यापता होनेसे अव्याप्तिदोषसे रहित है, और जीव के अतिरिक्त किसी द्रव्यमें व्यापता न होनेसे अतिव्याप्तिदोषसे रहित है; और वह प्रगट है; इसलिये उसी का आश्रय ग्रहण करनेसेजीव के यथार्थ स्वरूपका ग्रहण हो सकता है। ४२। अब, जबकी ऐसे लक्षणसे जीव प्रगट है तब भी अज्ञानी जनोंको उसका अज्ञान क्यों रहता है ?'-इसप्रकार आचार्यदेव आश्चर्य तथा खेद प्रगट करते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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