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समयसार
हैं कि 'जयवंत वर्ते वह पद्मनंदि आचार्य अर्थात् कुन्दकुन्द आचार्य कि जिन्होंने महातत्वसे भरे हुये प्राभृतरूपी पर्वतको
बुद्धिरूपी सिरपर उठाकर भव्य जीवोंको समर्पित किया है'। यथार्थतया इस समयमें यह शास्त्र मुमुक्षु भव्यजीवोंका परम आधार है। ऐसे दुषमकाल में भी ऐसा अद्भुत अनन्यशरणभूत शास्त्र-तीर्थंकरदेवके मुख से निकला हुआ अमृत-विद्यमान है यह अपना सबका महा सद्भाग्य है। निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक यथार्थ मोक्षमार्गकी ऐसी संकलनाबद्ध प्ररूपणा दूसरे कोई भी ग्रन्थमें नहीं है। परमपूज्य श्री कानजी स्वामीके शब्दों में कहा जावे तो –'यह समयसार शास्त्र आगमोंका भी आगम है; लाखों शास्त्रोंका सार इसमें है; जैन शासन का यह स्थम्भ है; साधक की यह कामधेनु है, कल्पवृक्ष है। चौदह पूर्वका रहस्य इसमें समाया हुवा है। इसकी हर एक गाथा छठे सातवें गुणस्थानमें झूलते हुवे महामुनिके आत्म-अनुभवमेंसे निकली हुई है। इस शास्त्रके कर्ता भगवान् कुन्दकुन्दआचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमंधर भगवानके समवसरणमें गये थे और वहाँ वे आठ दिन रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, इसमें लेश मात्र भी शंका के लिये स्थान नहीं है। उन परमउपकारी आचार्य भगवान द्वारा रचित इस समयसार में तीर्थंकरदेवकी निरक्षरी ॐकार ध्वनिमें से निकला हुवा ही उपदेश है'।
इस शास्त्र में भगवान् कुन्दकुन्दआचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओंपर आत्मख्याति नामकी संस्कृत टीका लिखनेवाले [ विक्रमकी दसवीं शताब्दी के लगभग होनेवाले ] श्रीमान् अमृतचन्द्राचार्यदेव हैं। जिस प्रकार इस शास्त्रके मूलकर्ता अलौकिक पुरुष हैं उसी प्रकार उसके टीकाकार भी महासमर्थ आचार्य हैं। आत्मख्याति जैसी टीका अभी तक भी दूसरे कोई जैन ग्रन्थ की नहीं लिखी गई है और तत्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्य -पाय आदि स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना भी की है। उनकी एक इस आत्मख्याति टीका ही पढ़ने वाले को उनकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको न्यायसे सिद्ध करनेकी उनकी असाधारण शक्ति और उत्तम काव्यशक्ति का पूरा ज्ञान हो जावेगा। अति संक्षेप में गम्भीर रहस्योंको भर देने की अनोखी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित करती है। उनकी यह दैवी टीका श्रुतकेवली के वचनोंके समान है।
स प्रकार मूल शास्त्रकर्ता ने समस्त निजवैभवसे इस शास्त्रकी रचना की है उसी प्रकार टीकाकर ने भी अत्यन्त उत्साहपूर्वक सर्व निज-वैभव से यह टीका रची है ऐस इस टीकाके पढ़ने वालोंको स्वभावतः ही निश्चय हुये बिना नहीं रह सकता। शासन-मान्य भगवान् कुन्दकुन्दआचार्यदेवने इस कलिकाल में जगद्गुरु तीर्थंकरदेव के जैसा काम किया है और श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने, मानों कि वे कुन्दकुन्द भगवान् के हृदय में बैठ गये हों उस प्रकार से उनके गम्भीर आशयोंको यथार्थतया व्यक्त करके, उनके गणधर के समान कार्य किया है। इस टीका में आने वाले काव्य [ कलश] अध्यात्मरस से और आत्मानुभव की मस्ती से भरपूर है। श्री पद्मप्रभमलधारीदेव जैसे समर्थ आचार्यों पर भी उन कलशोंने गहरी छाप डाली है और आज भी वे तत्त्वज्ञान से और
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