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समयसार
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अविशेष और असंयुक्त देखते हैं वे समग्र जिन शासन को देखते हैं' और भी वे कहते हैं कि ऐसा नहीं देखने वाले अज्ञानी के सर्व भाव अज्ञानमय हैं'। इस प्रकार जहाँ तक जीव को स्वयं की शुद्धता का अनुभव नहीं होता वहाँ तक वो मोक्षमार्गी नहीं है; भले ही वो व्रत, समिति, गुप्ति आदि व्यवहार चारित्र पालता हो और सर्व आगम भी पढ़ चुका हो। जिसको शुद्ध आत्माका अनुभव वर्तता है वह भी सम्यग्दृष्टि है, रागादि के उदय में सम्यक्त्वी जीव कभी एकाकररूप परिणमता नहीं है परन्तु ऐसा अनुभवता है कि 'यह पुद्गलकर्मरूप राग का विपाकरूप उदय है; ये मेरे भाव नहीं है, मैं तो एक ज्ञायक भाव हूँ'। यहाँ प्रश्न होगा कि रागादि भाव होते रहने पर भी आत्मा शुद्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर में स्फटिकमणिका दृष्टांत दिया गया है। जैसे स्फटिकमणि लाल कपड़ेके संयोगसे लाल दिखाई देती हैं--होती है तो भी स्फटिकमणि के स्वभाव की दृष्टिसे देखने पर स्फटिकमणि ने निर्मलपना छोड़ा नहीं है, उसी प्रकार आत्मा रागादी कर्मोदय के संयोग से रागी दिखाई देते है--होता है तो भी शुद्धनय की दृष्टि से उसने शुद्धता छोड़ी नहीं है। पर्यायदृष्टिसे अशुद्धता वर्तते हुवे भी द्रव्यदृष्टिसे शुद्धता का अनुभव हो सकता है। वह अनुभव चतुर्थ गुणस्थान में होता है। इससे वाचक के समझमें अवेगा कि सम्यग्दर्शन कितना दुष्कर है। सम्यग्दृष्टिका परिणमन ही पलट गया होता है। वह चाहे जो कार्य करते हुवे ही शुद्ध आत्मा को ही अनुभवता है। जैसे लोलुपी मनुष्य नमक और शाकके स्वादका भेद नहीं कर सकता; उसी प्रकार अज्ञानी ज्ञान का और राग का भेद नहीं कर सकता; जैसे अलुब्ध मनुष्य शाक से नमक का भिन्न स्वाद ले सकता है उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि राग से ज्ञान को भिन्न ही अनुभवता है।अब यह प्रश्न होता है कि ऐसा सम्यग्दर्शन किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् राग और आत्मा की भिन्नता किस प्रकार अनुभव पूर्वक समझमें आवे? आचार्य भगवान् उत्तर देते हैं कि-- प्रज्ञारूपी छेनी से छेदते वे दोनों भिन्न हो जाते हैं, अर्थात् ज्ञान से ही वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी पहिचान से ही --, अनादिकाल से राग द्वेष के साथ एकाकाररूप परिणमता आत्मा भिन्नपने परिणमने लगता है; इससे अन्य दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिये प्रत्येक जीव का वस्तुके यथार्थ स्वरूप की पहिचान करने का प्रयत्न सदा कर्तव्य है।
इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य यथार्थ आत्मस्वरूपकी पहिचान कराना है। इस इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये इस शास्त्रमें आचार्य भगवानने अनेक विषयोंका निरूपण किया है। जीव और पुद्गल के निमित्त नैमित्तिकपना होने पर भी दोनोंका अत्यन्त स्वतन्त्र परिणमन, ज्ञानी को राग-द्वेषका अकर्त्ता-अभोक्तापना, अज्ञानीको रागद्वेषका कर्त्ताभोक्तापना, सांख्यदर्शनकी एकान्तिकता, गुणस्थान आरोहणमें भावका और द्रव्यका निमित्तनैमित्तिकपना , विकाररूप परिणमन करनेमें अज्ञानीका सवयंका ही दोष , मिथ्यात्वादीका जड़पना उसीप्रकार चेतनापना, पुण्य और पाप दोनोंका बंधस्वरूपपना, मोक्षमार्गमें चरणानुयोगका स्थान इत्यादि अनेक विषय इस शास्त्र में प्ररूपण किये हैं। भव्य जीवोंको यथार्थ मोक्षमार्ग बतलाने का इन सबका उद्देश्य है। इस शास्त्रकी महत्ता देखकर अन्तर उल्लास अजाने से श्रीमद जयसेन आचार्य कहते
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