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समयसार
४६२
तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात्। ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः।
(अनुष्टुभ् ) नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः। कर्तृकर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः।। २०० ।।
देवनारकादि कार्य करता है,और उन ( -लोकोत्तर भी मुनियों) के मतमें अपना आत्मा वे कार्य करता है-इसप्रकार (दोनों में) "अपसिद्धांतकी समानता है। इसलिये आत्माके नित्य कर्तृत्वकी उनकी मान्यताके कारण, लौकिक जनोंकी भाँति, लोकोत्तर पुरुषों ( मुनियों) का भी मोक्ष नहीं होता।
भावार्थ:-जो आत्माको कर्ता मानते हैं, वे भले ही मुनि हो गये हों तथापि वे लौकिकजन जैसे ही हैं; क्योंकि, लोक ईश्वरको कर्ता मानता है और उन मुनियोंने आत्माको कर्ता माना है-इसप्रकार दोनों की मान्यता समान हुई। इसलिये जैसे लौकिक जनोंके मोक्ष नहीं होता उसी प्रकार उन मुनियोंके भी मुक्ति नहीं है। जो कर्ता हो वह कार्यके फलको भी अवश्य भोगेगा और जो फलको भोगेगा उसकी मुक्ति कैसी?
अब आगेके श्लोक में यह कहते हैं कि- 'परद्रव्य और आत्माका कोई भी संबंध नहीं है, इसलिये उनमें कर्ताकर्मसंबंध भी नहीं है' :
श्लोकार्थ:- [ परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति ] परद्रव्य और आत्मतत्त्वका (कोई भी) संबंध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे] इसप्रकार कर्तृत्व-कर्मके संबंधका अभाव होनेसे , [ तत्कर्तृता कुतः ] आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ?
भावार्थ:-परद्रव्य और आत्माका कोई भी संबंध नहीं है, तब फिर उनमें कर्ताकर्मसंबंध कैसे हो सकता है? इसप्रकार जहाँ कर्ताकर्मसंबंध नहीं है, वहाँ आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कैसे हो सकता है ? । २०० ।
अब, “जो व्यवहारनयके कथनको ग्रहण करके यह कहते हैं कि 'परद्रव्य मेरा है', और इसप्रकार व्यवहारको ही निश्चय मानकर आत्माको परद्रव्यका कर्ता मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं” ईत्यादि अर्थकी सुचक गाथयें दृष्टांत सहित कहते हैं:
* अपसिद्धांत = मिथ्या अर्थात् भूल भरा सिद्धांत।
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