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निर्जरा अधिकार
३१५
किं नाम तत्पदमित्याह
आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं। थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण।। २०३ ।।
आत्मनि द्रव्यभावानपदानि मुक्त्वा गृहाण तथा नियतम्। स्थिरमेकमिमं भावमुपलभ्यमानं स्वभावेन ।। २०३ ।।
[ स्व-रस-भरत:] निज रसकी अतिशयतके कारण [स्थायिभावत्वम् एति] स्थायीभावत्वको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है-अविनाशी है। (यहाँ 'शुद्ध' शब्द दो बार कहा है जो कि द्रव्य और भाव दोनोंकि शुद्धता सुचित करता है। समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके निमित्तसे होने वाले अपने भावोंसे रहित होनेसे भावसे शुद्ध है।)
भावार्थ:-जैसे कोई महान पुरुष मद्य पान करके मलिन स्थानपर सो रहा हो उसे कोई आकर जगाये-और संबोधित करे कि “यह तेरे सोने का स्थान नहीं है; तेरा स्थान तो शुद्ध सुवर्णमय धातुसे निर्मित, अन्य कुधातुओं के मिश्रणसे रहित शुद्ध है और अति सुदृढ़ है; इसलिये मैं तुझे जो बतलाता हूँ वहाँ आ और वहाँ शयनादि करके आनंदित हो"; इसीप्रकार ये प्राणी अनादि संसारसे लेकर रागादिको भला जानकर, उन्हीं को अपना स्वभाव मानकर, उसी में निश्चिंत होकर सो रहे हैं-स्थित हैं, उन्हें भी श्री गुरु करुणापूर्वक संबोधित करते हैं-जगाते हैं-सावधान करते हैं कि "हे अंध प्राणियों! तुम जिस पदमें सो रहे हो वह तुम्हारा पद नहीं है; तुम्हारा पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय है, बाह्यमें अन्य द्रव्योंकी मिलावटसे रहित तथा अंतरंगमें विकार रहित शुद्ध और स्थायी है; उस पदको प्राप्त होओ-शुद्ध चैतन्यरूप अपने भावका आश्रय करो"। १३८ ।
अब यहाँ पूछते हैं कि (हे गुरुदेव ! ) वह पद क्या है ? उसका उत्तर देते हैं:जीवमें अपद्भूत द्रव्यभावको, छोड़कर ग्रह तू यथार्थसे। थिर, नियत, एक हि भाव यह, उपलभ्य जो हि स्वभावसे ।। २०३।।
गाथार्थ:- [ आत्मनि ] आत्मामें [ अपदानि ] अपद्भूत [ द्रव्यभावान् ] द्रव्यभावोंको [ मुक्त्वा] छोड़कर [ नियतम्] निश्चित, [ स्थिरम् ] स्थिर, [ एकम् ] एक [ इमं] इस (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर ) [ भावम् ] भावको- [ स्वभावेन उपलभ्यमानं] जो कि (आत्माके) स्वभावरूपसे अनुभव किया जाता है उसे- [ तथा] (हे भव्य !) जैसा है वैसा [ गृहाण ] ग्रहण कर। ( यह तेरा पद है।)
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