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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३१६ इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, व्यभिचारिणो भावाः, ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातु: स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः। यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः, नियतत्वावस्थः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातु: स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः। ततः सर्वानेवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम्। (अनुष्टुभ् ) एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्। अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः।। १३९ ।। टीका:-वास्तवमें इस भगवान आत्मामें बहुतसे द्रव्य-भावोंके मध्यमेंसे (द्रव्यभावरूप बहुतसे भावोंके मध्यमेंसे), जो अतत्स्वभावसे अनुभवमें आते हुए ( आत्माके स्वभावरूप नहीं किन्तु परस्वभावरूप अनुभवमें आते हुए), अनियत अवस्थावाले, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं, वे सब स्वयं अस्थायी होनेके कारण स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवाले का नहीं हो सकने योग्य होनेसे अप्दभूत हैं; और जो तत्स्वभावसे (आत्मस्वभावरूपसे) अनुभवमें आता हुआ, नियत अवस्थावाला, एक, नित्य. अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) है. वह एक ही स्वयं स्थाई होनेसे स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवाले का स्थान हो सकने योग्य होनेसे पद्भूत है। इसलिये समस्त अस्थायी भावोंको छोड़कर, जो स्थायीभावरूप है ऐसे परमार्थरसरूपसे स्वादमें आनेवाला यह ज्ञान एक ही आस्वादनके योग्य है। भावार्थ:-पहले वर्णादिक गुणस्थान पर्यंत जो भाव कहे थे वे सब, आत्मामें अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं। आत्मा स्थायी है ( -सदा विद्यमान है) और वे सब भाव अस्थायी हैं, इसलिये वे आत्माका स्थान नहीं हो सकते अर्थात् वे आत्माके पद नहीं हैं। जो यह स्वसंवेदनरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है। आत्मा स्थायी है और ज्ञान भी स्थायी भाव है इसलिये वह आत्माका पद हैं। वह एक ही ज्ञानियों के द्वारा आस्वाद लेने योग्य है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं] वह एक ही पद आस्वादनके योग्य है [विपदाम् अपदं] जो कि विपत्तियोंका अपद है (अर्थात् जिसमें आपदायें स्थान नहीं पा सकती) और [ यत्पुरः] जिसके आगे [ अन्यानि पदानि ] अन्य (सब) पद [ अपदानि एव भासन्ते ] अपद ही भासित होते हैं। भावार्थ:-एक ज्ञान ही आत्माका पद है। उसमें कोई भी आपदा प्रवेश नहीं कर सकती और उसके आगे अन्य सब पद अपदस्वरूप भासित होते हैं (क्योंकि वे आकुलतामय हैं-आपत्तिरूप हैं)। १३९ । Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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