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निर्जरा अधिकार
३१७
(शार्दूलविक्रीडित) एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन् स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्। आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं । सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्।।१४० ।।
तथाहि
आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं। सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि।। २०४ ।।
अब यहाँ कहते हैं कि जब आत्मा ज्ञानका अनुभव करता है तब इसप्रकार करता है:
__ श्लोकार्थ:-[ एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन् ] एक ज्ञायकभावसे भरे हुए महास्वादको लेता हुआ, (इसप्रकार ज्ञानमें ही एकाग्र होनेपर दूसरा स्वाद नहीं आता इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः ] द्वंद्वमय स्वादके लेनेमें असमर्थ (वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञानके भेदोंका स्वाद लेनेमें असमर्थ)। [आत्म-अनुभव-अनुभाव-विवश: स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्मानुभवकेस्वादके- प्रभावके आधीन होनेसे निज वस्तुवृत्तिको (आत्माकी शुद्धपरिणतिको) जानता-आस्वाद लेता हुआ (आत्माके अद्वितीय स्वादके अनुभवनमेंसे बाहर न आता हुआ) [ एषः आत्मा] यह आत्मा [ विशेष-उदयं भ्रश्यत् ] ज्ञानके विशेषोंके उदयको गौण करता हुआ , [ सामान्यं कलयन् किल] सामान्यमात्र ज्ञानका अभ्यास करता हुआ, [ सकलं ज्ञानं ] सकल ज्ञानको [ एकताम् नयति] एकत्वमें लाता है-एकरूपमें प्राप्त करता है।
भावार्थ:-इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वादके आगे अन्य रस फीके हैं। और स्वरूपज्ञानका अनुभव करते हुए सर्व भेदभाव मिट जाते हैं। ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्तसे होते हैं। जब ज्ञानसामान्यका स्वाद लिया जाता है तब ज्ञानके समस्त भेद भी गौण हो जाते हैं, एक ज्ञान ही ज्ञेयरूप होता है। यहाँ प्रश्न होता है कि छद्मस्थको पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसे आवे ? इसका उत्तर पहले शुद्धनयका कथन करते हुए दिया जा चुका है कि शुद्धनय आत्माका शुद्ध पूर्ण स्वरूप बतलाता है इसलिये शुद्धनयके द्वारा पूर्णरूप केवलज्ञानका परोक्ष स्वाद आता है। १४०।
अब, कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे ज्ञानमें भेद होने पर भी उसके (ज्ञानके) स्वरूपका विचार किया जाये तो ज्ञान एक ही है और वह ज्ञान ही मोक्षका उपाय है। इस अर्थकी गाथा कहते हैं:
मति, श्रुत , अवधि, मनः, केवल सबहि एक हि पद जु है । वो ज्ञानपद परमार्थ है, जो पाय जीव मुक्ती लहे ।। २०४।।
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