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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३१८ आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च तद्भवत्येकमेक पदम्। स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृतिं याति।। २०४ ।। आत्मा किल परमार्थः, तत्तु ज्ञानम्; आत्मा च एक एव पदार्थः, ततौ ज्ञानमप्येकमेव पदं; यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थ: साक्षान्मोक्षोपायः। न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिन्दन्ति, किन्तु तेऽपीदमेवैकं पदमभिनन्दन्ति। तथाहि-यथात्र सवितुर्घनपटला-वगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयत: प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभावं भिन्दन्ति, तथा आत्मन: कर्मपटलोदयावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिन्द्युः, किन्तु प्रत्युत तमभिनन्देयुः। ततो निरस्त समस्तभेदमात्मस्वभावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यम्। तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रान्तिः, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्मपरिहारः, न कर्म मूर्छति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवन्ते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म गाथार्थ:- [ आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान- [ तत् ] यह [ एकम् एव ] एक ही [ पदम् भवति] पद है ( क्योंकि ज्ञानके समस्त भेद ज्ञान ही हैं); [ सः एषः परमार्थः] वह यह परमार्थ है (-शुद्धनयका विषयभूत ज्ञानसामान्य ही यह परमार्थ है-) [यं लब्ध्वा ] जिसे प्राप्त करके [ निर्वृतिं याति] आत्मा निर्वाणको प्राप्त होता है। टीका:-आत्मा वास्तवमें परमार्थ ( परम पदार्थ) है और वह (आत्मा) ज्ञान है; और आत्मा एक ही पदार्थ है; इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है। यह ज्ञान नामक एक पद परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है। यहाँ, मतिज्ञान आदि (ज्ञानके) भेद इस एक पदको नहीं भेदते किन्तु वे भी इसी एक पदका अभिनंदन करते हैं ( - समर्थन करते हैं)। इसी बात को दृष्टांतपूर्वक समझाते हैं:-जैसे इस जगतमें बादलोंके पटलसे ढका हुआ सूर्य जो कि बादलोंके विघटन ( बिखरने) अनुसार प्रगटताको प्राप्त होता है। उसके ( सूर्यके ) प्रकाशनकी (प्रकाश करने की) हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य) प्रकाशस्वभावको नहीं भेदते, इसीप्रकार कर्मपटलके उदयसे ढका हुआ आत्मा जो कि कर्मके विघटन (क्षयोपशम) के अनुसार प्रगटता को प्राप्त होता है, उसके ज्ञानके हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य) ज्ञानस्वभावको नहीं भेदते, प्रत्युत ( उलटे) अभिनंदन करते हैं। इसलिये जिसमें समस्त भेद दूर हुए हैं ऐसे आत्मस्वभावभूत एक ज्ञानका ही-अवलंबन करना चाहिये। उसके आलंबनसे ही (निज) पदकी प्राप्ति होती है, भ्रांतिका नाश होता है, आत्माका लाभ होता है, और अनात्माका परिहार सिद्ध होता है, ( ऐसा होनेसे ) कर्म बलवान नहीं होते, रागद्वेषमोह उत्पन्न नहीं होते, ( रागद्वेषमोह बिना) पुनः कर्मास्रव नहीं होता, (आस्रवके बिना) पुनः कर्म-बंध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म भुक्त होकर Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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