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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३१४ (मन्दाक्रान्ता) आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः। एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातु: शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति।।१३८ ।। भावार्थ:-यहाँ 'राग' शब्दसे अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहे गये हैं। और 'अज्ञानमय' कहनेसे मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीसे हुए रागादिक समझना चाहिये, मिथ्यात्व के बिना चारित्रमोहके उदय का राग नहीं लेना चाहिये; क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिको चारित्रमोहके उदय संबंधी जो राग है सो ज्ञानसहित है; सम्यग्दृष्टि उस राग को कर्मोदयसे उत्पन्न हुआ रोग जानता है और उसे मिटाना ही चाहता है; उसे उस रागके प्रति राग नहीं है। और सम्यग्दृष्टिके रागका लेशमात्र सद्भाव नहीं है ऐसा कहा है सो इसका कारण इस प्रकार है:-सम्यग्दृष्टिके अशुभ राग तो अत्यंत गौण है और जो शुभ राग होता है सो वह उसे किंचित्मात्र भी भला (अच्छा) नहीं समझता-उसके प्रति लेशमात्र राग नहीं करता, और निश्चयसे तो उसके रागका स्वामित्व ही नहीं है। इसलिये उसे लेशमात्र भी राग नहीं है। यदि कोई जीव रागको भला जानकर उसके प्रति लेशमात्र राग करे तो- वह भले सर्व शास्त्रोंको पढ़ चुका हो, मुनि हो, व्यवहारचारित्रका पालन करता हो तथापि-यह समझना चाहिये कि उसने अपने आत्माके परमार्थस्वरूपको नहीं जाना, कर्मोदयजनित रागको ही अच्छा मान रक्खा है तथा उसीसे अपना मोक्ष माना है। इसप्रकार अपने और परके परमार्थ स्वरूपको न जाननेसे जीव-अजीवके परमार्थ स्वरूपको नहीं जानता। और जहाँ जीव तथा अजीव-इन दो पदार्थों को ही नहीं जानता वहाँ सम्यग्दृष्टि कैसा ? तात्पर्य यह है कि रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं, जिसे काव्यके द्वारा आचार्यदेव अनादिसे रागादिको अपना पद जानकर सोये हुए रागी प्राणियोंको उपदेश देते हैं: श्लोकार्थ:- (श्री गुरु संसारी भव्य जीवोंको संबोधन करते हैं कि-) [अन्धाः] हे अंध प्राणियों! [ आसंसारात ] अनादि संसारसे लेकर [ प्रतिपदम् ] पर्याय पर्यायमें [ अमी रागिण: ] यह रागी जीव [ नित्यमत्ताः ] सदा मत्त वर्तते हुए [ यस्मिन् सुप्ताः ] जिस पदमें सो रहे हैं [तत् ] वह पद अर्थात् स्थान [ अपदम् अपदं] अपद है-अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है,) [ विबुध्यध्वम् ] ऐसा तुम समझो। ( अपद शब्दको दो बार कहने से अति करुणाभाव सूचित होता है।) [ इतः एत एत ] इस ओर आओ-इस ओर आओ, ( यहाँ निवास करो,) [ पदम् इदम् इदं ] तुम्हारा पद यह है-यह है [ यत्र] जहाँ [ शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः ] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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