________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार
५२६
यः खलु पुद्गलकर्मविपाकभवेभ्यो भावेभ्यश्चेतयितात्मानं निवर्तयति, स तत्कारणभूतं पूर्व कर्म प्रतिक्रामन् स्वयमेव प्रतिक्रमणं भवति। स एव तत्कार्यभूतमुत्तरं कर्म प्रत्याचक्षाण: प्रत्याख्यानं भवति। स एव वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलभमानः आलोचना भवति। एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन्, नित्यं प्रत्याचक्षाणो, नित्यमालोचयंश्च, पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरकर्मकारणेभ्यो भावेभ्योऽत्यन्तं निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलभमानः, स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरन्तरचरणाचारित्रं भवति। चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः।
टीका:-जो आत्मा पुद्गलकर्मके विपाक (उदय) से हुये भावोंसे अपनेको छुड़ाता है, वह आत्मा उन भावोंके कारणभूत पूर्वकर्मोंको (भूतकालके कर्मोंको) प्रतिक्रमता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण है; वही आत्मा, उन भावोंके कार्यभूत उत्तरकर्मों को ( भविष्यकालके कर्मों) प्रत्याख्यानरूप करता हुआ, प्रत्याख्यान है; वही आत्मा , वर्तमान कर्मविपाकको अपनेसे (आत्मासे) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभव करता हुआ; आलोचना है। इसप्रकार यह आत्मा सदा प्रतिक्रम करता हुआ, सदा प्रत्याख्यान करता हुआ और सदा आलोचना करता हुआ, पूर्वकर्मोंके कार्यरूप और उत्तरकर्मोंके कारणरूप भावोंसे अत्यंत निवृत्त होता हुआ, वर्तमान कर्मविपाकको अपनेसे (आत्मासे) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभव करता हुआ , अपनेमें ही-ज्ञानस्वभावमें हीनिरंतर चरनेसे (-आचरण करने से) चारित्र है (अर्थात् स्वयं ही चारित्रस्वरूप है)।
और चारित्रस्वरूप होता हुआ अपनेको-ज्ञानमात्रको-चेतता ( अनुभव करता) है इसलिये ( वह आत्मा) स्वयं ही ज्ञानचेतना है, ऐसा आशय है।
भावार्थ:-चारित्रमें प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाका विधान है। उसमें, पहले लगे हुए दोषोंसे आत्माको निवृत करना सो प्रतिक्रमण है, भविष्यमें दोष लगाने का त्याग करना सो प्रत्याख्यान है और वर्तमान दोषसे आत्माको पृथक् करना सो आलोचना है। यहाँ निश्चयचारित्रको प्रधान करके कथन है; इसलिये निश्चयसे विचार करने पर, जो आत्मा त्रिकालके कर्मोंसे अपनेको भिन्न जानता है, श्रद्धा करता है और अनुभव करता है, वह आत्मा स्वयं ही प्रतिक्रमण है, स्वयं ही प्रत्याख्यान है और स्वयं ही आलोचना है। इसप्रकार प्रतिक्रमणस्वरूप, प्रत्याख्यानस्वरूप और आलोचना स्वरूप आत्माका निरंतर अनुभवन ही निश्चयचारित्र है। जो यह निश्चयचारित्र है, वही ज्ञानचेतना ( अर्थात् ज्ञानका अनुभवन) है। उसी ज्ञानचेतनासे ( अर्थात् ज्ञानके अनुभवनसे) साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप केवलज्ञानमय आत्मा प्रगट होता है।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं, जिसमें ज्ञानचेतना और अज्ञानचेतना (अर्थात् कर्मचेतना और कर्मफलचेतना) फल प्रगट करते हैं:
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com