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समयसार
१८८
जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो। तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो।।१०८ ।।
यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः। तथा जीवो व्यवहारत् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः।। १०८ ।।
यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः, तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः।
गुणदोषउत्पादक कहा ज्यों भूपको व्यवहारसे ।
त्यों द्रव्यगुणउत्पन्नकर्ता , जीव कहा व्यवहारसे ।। १०८।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ राजा ] राजाको [ दोषगुणोत्पादकः इति ] प्रजाके दोष और गुणोंको उत्पन्न करनेवाला [ व्यवहारात् ] व्यवहारसे [आलपितः] कहा है , [ तथा ] उसीप्रकार [ जीव: ] जीवको [ द्रव्यगुणोत्पादक: ] पुद्गलद्रव्यके द्रव्य-गुणोंको उत्पन्न करनेवाला [ व्यवहारात् ] व्यवहारसे [ भणितः] कहा गया है।
टीका:-जैसे प्रजाके गुणदोषोंको और प्रजामें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्वभावसे ही (प्रजाके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होनेपर भी--यद्यपि उन गुणदोषोंमें और राजामें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि-यह उपचार से कहा जाता है कि उनका उत्पादक राजा है' ; इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंमें और पुदगलद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्व-भावसे ही (पदगलद्रव्यके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होनेपर भी-यद्यपि गुणदोषोंमें और जीवमें व्याप्य- व्यापकभावका अभाव है तथापि- उनका उत्पादक जीव है' ऐसा उपचार किया है।
भावार्थ:-जगतमें कहा जाता है कि 'यथा राजा तथा प्रजा'। इस कहावतसे प्रजाके गुणदोषोंका उत्पन्न करनेवाला राजा कहा जाता है। इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंको उत्पन्न करनेवाला जीव कहा जाता है। परमार्थदृष्टि से देखा जाये तो यह यथार्थ नहीं है, किन्तु उपचार है।
अब आगेकी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :---
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