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( वसन्ततिलका) जीवः करोति यदि पुद्गलकर्मनैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव। एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय सङ्कीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ।। ६३ ।।
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। १०९ ।। तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो। मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।। ११० ।। एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा । ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा।। १११ ।।
श्लोकार्थ:-[ यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति ] यदि पुद्गलकर्मको जीव नहीं करता [ तर्हि ] तो फिर [ तत् कः कुरुते ] उसे कौन करता है?' [इति अभिशङ्कया एव] ऐसी आशंका करके, [ एतर्हि ] अब [ तीव्र - रय - मोह - निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाले मोहका ( कर्तृत्वकर्मत्वके अज्ञानका ) नाश करने के लिये, यह कहते हैं कि--[ पुद्गलकर्मकर्तृ सङ्कीर्त्यते ] 'पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है'; [ शृणुत ] इसलिये ( हे ज्ञानके इच्छुक पुरुषों ! ) इसे सुनों । ६३ ।
अब यह कहते हैं कि पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है :
सामान्य प्रत्यय चार, निश्चय बंधके कर्ता कहे ।
- मिथ्यात्व ने अविरमण योगकषाय ये ही जानने ।। १०९ ।।
फिर उनहिका दर्शा दिया, यह भेद तेर प्रकारका । -मिथ्यात्व गुस्थानादि ले, जो चरमभेद सयोगिका ।। ११० ।।
पुद्गलकरमके उदयसे, उत्पन्न इससे अजीव वे । वे जो करें कर्मों भले, भोक्ता भि नहिं जीवद्रव्य है ।। १११ ।।
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