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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार ( वसन्ततिलका) जीवः करोति यदि पुद्गलकर्मनैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव। एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय सङ्कीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ।। ६३ ।। सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। १०९ ।। तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो। मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।। ११० ।। एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा । ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा।। १११ ।। श्लोकार्थ:-[ यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति ] यदि पुद्गलकर्मको जीव नहीं करता [ तर्हि ] तो फिर [ तत् कः कुरुते ] उसे कौन करता है?' [इति अभिशङ्कया एव] ऐसी आशंका करके, [ एतर्हि ] अब [ तीव्र - रय - मोह - निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाले मोहका ( कर्तृत्वकर्मत्वके अज्ञानका ) नाश करने के लिये, यह कहते हैं कि--[ पुद्गलकर्मकर्तृ सङ्कीर्त्यते ] 'पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है'; [ शृणुत ] इसलिये ( हे ज्ञानके इच्छुक पुरुषों ! ) इसे सुनों । ६३ । अब यह कहते हैं कि पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है : सामान्य प्रत्यय चार, निश्चय बंधके कर्ता कहे । - मिथ्यात्व ने अविरमण योगकषाय ये ही जानने ।। १०९ ।। फिर उनहिका दर्शा दिया, यह भेद तेर प्रकारका । -मिथ्यात्व गुस्थानादि ले, जो चरमभेद सयोगिका ।। ११० ।। पुद्गलकरमके उदयसे, उत्पन्न इससे अजीव वे । वे जो करें कर्मों भले, भोक्ता भि नहिं जीवद्रव्य है ।। १११ ।। १८९ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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