________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates संवर अधिकार
( शार्दूलविक्रीडित )
चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभागं द्वयोरन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च। भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः।। १२६ ।।
२८७
इसप्रकार ( ज्ञानका और क्रोधादिक तथा कर्म - नोकर्मका) भेदविज्ञान भली भाँति सिद्ध हुआ।
भावार्थ:- उपयोग तो चैतन्यका परिणमन होनेसे ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म-सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाम होनेसे जड़ हैं; उनमें और ज्ञानमें प्रदेशभेद होनेसे अत्यंत भेद है। इसलिये उपयोगमें क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नहीं है और क्रोधादिकमें, कर्ममें तथा नोकर्ममें उपयोग नहीं है। इसप्रकार उनमें पारमार्थिक आधाराधेय संबंध नहीं है; प्रत्येक वस्तुका अपना अपना आधाराधेयत्व अपने अपने में ही है। इसलिये उपयोग उपयोगमें ही है, क्रोध क्रोधमें ही है। इसप्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हो गया ( भावकर्म इत्यादिका और उपयोगका भेद जानना सो भेदविज्ञान है । )
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपता को धारण करने वाला ज्ञान और जड़रूपताको धारण करनेवाला राग- [द्वयोः ] दोनोंका, [अन्तः] अंतरंगमें [ दारुण-दारणेन ] दारुण विदारणके द्वारा (भेद करनेवाले उग्र अभ्यास के द्वारा), [ परितः विभागं कृत्वा ] सभी ओरोंसे विभाग करके ( - सम्पूर्णतया दोनोंको अलग करके), [ इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति ] यह निर्मल भेदज्ञान उदय को प्राप्त हुआ है ; [ अधुना ] इसलिये अब [ एकम् शुद्ध-ज्ञानघन-ओधम् अध्यासिताः ] एक शुद्ध विज्ञानघनके पुंजमें स्थित और [ द्वितीय-च्युताः ] अन्यसे अर्थात् रागसे रहित [ सन्तः] हे सत्पुरुषों ! [ मोदध्वम् ] मुदित होओ।
भावार्थ:-ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिक पुद्गलविकार होनेसे जड़ है; किन्तु ऐसा भासित होता है कि मानों अज्ञानसे, ज्ञान भी रागादिरूप हो गया हो, अर्थात् ज्ञान और रागादिक दोनों एकरूप - जड़रूप - भासित होते हैं। जब अंतरंगमें ज्ञान और रागादिका भेद करनेका तीव्र अभ्यास करनेसे भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञानका स्वभाव तो मात्र जाननेका ही है, ज्ञानमें जो रागादिकी कलुषता-आकुलतारूप संकल्पविकल्पभासित होते हैं वे सब पुद्गलविकार हैं, जड़ हैं। इसप्रकार ज्ञान और रागादिके भेदका स्वाद आता है अर्थात् अनुभव होता है।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com