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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २८६ न च यथा ज्ञानस्य जानत्ता स्वरूपं तथा क्रुध्यत्तादिरपि, क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यत्तादि स्वरूपं तथा जानत्तापि कथञ्चनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रुध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वम्। किञ्च यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति। तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति। एवं यदैकमेव ज्ञानं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति। तदप्रभवे चैकं ज्ञानमेवैकस्मिन् ज्ञान एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति। ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव , क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानम्। और जैसे ज्ञानका स्वरूप जाननक्रिया है उसीप्रकार (ज्ञानका स्वरूप) क्रोधादिक्रिया भी हो, अथवा जैसे क्रोधादिका स्वरूप क्रोधादिक्रिया है उसीप्रकार (क्रोधादिकका स्वरूप) जाननक्रिया भी हो ऐसा किसी भी प्रकार से स्थापित नहीं किया जा सकता; क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधादिक्रिया भिन्न भिन्न स्वभावसे प्रकाशित होती हैं और इस भाँति स्वभावोंके भिन्न होनेसे वस्तुएँ भिन्न ही हैं। इसप्रकार ज्ञान तथा अज्ञानमें ( क्रोधादिकमें ) आधाराधेयत्व नहीं है। इसीको विशेष समझाते हैं:-जब एक ही आकाशको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (आकाशके) आधाराधेयभावका विचार किया जाता है तब आकाशको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करने का निरोध ही होनेसे (अर्थात् अन्य द्रव्योंमें स्थापित करना अशक्य ही होनेसे ) बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा प्रभवित (उद्भूत) नहीं होती ; और उसके प्रभवित नहीं होनेसे , 'एक आकाश ही एक आकाशमें ही प्रतिष्ठित है' यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और इसलिये ऐसा समझ लेने वाले के परआधाराधेयत्व भासित नहीं होते। इसप्रकार जब एक ही ज्ञान को अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (ज्ञानका) आधाराधेयभावका विचार किया जाये तब ज्ञानको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करनेका निरोध ही होनेसे बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा प्रभवित नहीं होती; और उसके प्रभवित नहीं होनेसे , 'एक ज्ञान ही एक ज्ञानमें ही प्रतिष्ठित है' यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और ऐसा समझ लेने वाले को परआधाराधेयत्व भासित नहीं होता इसलिये ज्ञान ही ज्ञानमें ही है, और क्रोधादिक ही क्रोधादिकमें ही है। * प्रभवित नहीं होती : लागू नहीं होती, लग सकती नहीं, शमन हो जाती है, उद्भूत नहीं होती । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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