________________
२८८
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार
वैपरीत्यकणिकामप्यनासादयद
एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य विचलितमवतिष्ठते, तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञानं ज्ञानमेव केवलं सन्न किञ्चनापि रागद्वेषमोहरूपं भावमारचयति। ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलम्भः प्रभवति । शुद्धात्मोपलम्भात् रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति।
कथं भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलम्भ इति चेत्
जह कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिचयदि । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ।। १८४ ।। एवं जाणदि णाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं । अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो ।। १८५ ।।
यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तं परित्यजति । तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वम् ।। १८४ ।।
66
जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनंदित होता है क्योंकि उसे ज्ञात है कि स्वयं सदा ज्ञानस्वरूप ही रहा है, रागादिरूप कभी नहीं हुआ ” । इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि “हे सत्पुरुषों ! अब मुदित होओ”। १२६ ।
टीका:- इसप्रकार जब यह भेदविज्ञान ज्ञानको अणुमात्र भी ( रागादिविकाररूप) विपरीतताको न प्राप्त करता हुआ अविचलरूपसे रहता है, तब शुद्धउपयोगमयात्मकता के द्वारा ज्ञान केवल ज्ञानरूप ही रहता हुआ किंचित्मात्र भी रागद्वेषमोहरूप भावको नहीं करता, इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि ) भेदविज्ञानसे शुद्ध आत्माकी उपलब्धि ( अनुभव ) होती है और शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे रागद्वेषमोहका ( अर्थात् आस्रवभावका ) अभाव जिसका लक्षण है ऐसा संवर होता है।
अब यह प्रश्न होता है कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि ( अनुभव ) कैसे होती है ? उसके उत्तरमें गाथा कहते हैं:
ज्यों अग्नितप्त सुवर्ण भी, निज स्वर्णभाव नहीं तहे ।
त्यों कर्मउदय प्रतप्त भी, ज्ञानी न ज्ञानीपना तजे ।। १८४ ।।
जीव ज्ञानी जाने ये हि अरु अज्ञानी राग हि जीव गिनें ।
"
आत्मस्वभाव-अजान जो अज्ञानतमआच्छादसे ।। १८५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा ] जैसे [ कनकम् ] सुवर्ण [ अग्नितप्तम् अपि ] अग्निसे तप्त होता हुआ भी [ तं ] अपने [ कनकभावं ] सुवर्णत्वको [ न परित्यजति ] नहीं छोड़ता
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com