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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates संवर अधिकार २८९ एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी मनुते रागमेवात्मानम्। अज्ञानतमोऽवच्छन्न: आत्मस्वभावमजानन्।। १८५ ।। यतो यस्यैव यथोदितं भेदविज्ञानमस्ति स एव तत्सद्भावात् ज्ञानी सन्ने जानाति-यथा प्रचण्डपावकप्रतप्तमपि सुवर्णं न सुवर्णत्वमपोहति तथा प्रचण्डकर्मविपाकोपष्टब्धमपि ज्ञानं न ज्ञानत्वमपोहति, कारणसहस्रेणापि स्वभावस्यापोढुमशक्यत्वात; तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन एवोच्छेदात; न चास्ति वस्तूच्छेदः, सतो नाशासम्भवात्। एवं जानंश्च कर्माक्रान्तोऽपि न रज्यते, न द्वेष्टि, न मुह्यति, किन्तु शुद्धमात्मानमेवोपलभते। यस्य तु यथोदितं भेदविज्ञानं नास्ति स तदभावादज्ञानी सन्नज्ञानतमसाच्छन्नतया चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावमजानन् रागमेवात्मानं मन्यमानो रज्यते द्वेष्टि मुह्यति च, न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते। ततो भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलम्भः। [ तथा ] इसीप्रकार [ ज्ञानी ] ज्ञानी [कर्मोदयतप्तः तु] कर्मों के उदयसे तप्त होता हुआ भी [ज्ञानित्वम् ] ज्ञानित्वको [न जहाति ] नहीं छोड़ता;- [ एवं ] ऐसा [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ जानाति] जानता है, और [ अज्ञानी ] अज्ञानी [ अज्ञानतमोऽवच्छन्नः ] अज्ञानांधकारसे आच्छादित होनेसे [ आत्मस्वभावम् ] आत्माके स्वभावको [ अजानन् ] न जानता हुआ [ रागम् एव ] रागको ही [ आत्मानम् ] आत्मा [ मनुते ] मानता है। टीका:-जिसे ऊपर कहा गया भेदविज्ञान है वही उसके (भेदविज्ञानके) सद्भावसे ज्ञानी होता हुआ इसप्रकार जानता है कि:-जैसे प्रचंड अग्निके द्वारा तप्त होता हुआ भी सुवर्ण सुवर्णत्वको नहीं छोड़ता उसीप्रकार प्रचंड कर्मोदयके द्वारा घिरा हुआ होनेपर भी (विध्न किया जाय तो भी) ज्ञान ज्ञानत्व को नहीं छोड़ता, क्योंकि हजारों कारणोंके एकत्रित होनेपर भी स्वभावको छोड़ना अशक्य है; उसे छोड़ देने पर स्वभावमात्र वस्तुका ही उच्छेद हो जायेगा, और वस्तुका उच्छेद तो होता नहीं है क्योंकि सत्का नाश होना असंभव है। ऐसा जानता हुआ ज्ञानी कर्मोंसे आक्रांत (घिरा हुआ) होता हुआ भी रागी नहीं होता, द्वेषी नहीं होता, मोही नहीं होता, किन्तु वह शुद्ध आत्माका ही अनुभव करता है। और जिसे उपरोक्त भेदविज्ञान नहीं है वह उसके अभावसे अज्ञानी होता हुआ, अज्ञानांधकार द्वारा आच्छादित होनेसे चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावको न जानता हुआ, रागको ही आत्मा मानता हुआ, रागी होता है, द्वेषी होता है, मोही होता है, किन्तु शुद्ध आत्माका किंचित्मात्र भी अनुभव नहीं करता। इससे सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि ( अनुभव ) होती है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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