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समयसार
५२२
एवमात्मा प्रदीपवत् परं प्रति उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थितः, तथापि यद्रागद्वेषौ तदज्ञानम्।
(शार्दूलविक्रीडित) पूर्णकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोधो न बोध्यादयं यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव। तद्वस्तुस्थितिबोधवन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो रागद्वेषमयीभवन्ति सहजां मुञ्चन्त्युदासीनताम्।। २२२ ।।
इसप्रकार आत्मा दीपककी भाँति परके प्रति सदा उदासीन (अर्थात् संबंध रहित , तटस्थ है) -ऐसी वस्तुस्थिति है, तथापि जो रागद्वेष होता है सो अज्ञान है।
भावार्थ:-शब्दादिक जड़ पुद्गलद्रव्यके गुण हैं। वे आत्मासे कहीं यह नहीं कहते, कि 'तू हमें ग्रहण कर ( अर्थात् तू हमें जान)'; और आत्मा भी अपने स्थानसे च्युत होकर उन्हें ग्रहण करने के लिये ( -जानने के लिये) उनकी ओर नहीं जाता। जैसे शब्दादिक समीप न हों तब भी आत्मा अपने स्वरूपसे ही जानता है, इसप्रकार शब्दादिक समीप हों तब भी आत्मा अपने स्वरूपसे ही जानता है। इसप्रकार अपने स्वरूपसे ही जाननेवाले ऐसे आत्माको अपने अपने स्वभावसे ही परिणमित होते हुए शब्दादिक किंचित्मात्र भी विकार नहीं करते, जैसे कि अपने स्वरूपसे ही प्रकाशित होने वाले दीपकको घटपटादि पदार्थ विकार नहीं करते। ऐसा वस्तुस्वभाव है, तथापि जीव शब्दको सुनकर , रूपको देखकर, गंधको सूंघकर, रसका स्वाद लेकर , स्पर्शको छूकर, गुण-द्रव्यको जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर राग-द्वेष करता है, वह अज्ञान ही है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ पूर्ण-एक-अच्युत-शुद्ध-बोध-महिमा अयं बोद्धा] पूर्ण, एक , अच्युत और ( -निर्विकार) ज्ञान जिसकी महिमा है ऐसा यह ज्ञायक आत्मा [ बोध्यात् ] ज्ञेय पदार्थोंसे [ काम् अपि विक्रियां न यायात् ] किंचित्मात्र भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, [ दीपः प्रकाश्यात् इव] जैसे दीपक प्रकाश्य (-प्रकाशित होने योग्य घटपटादि ) पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता। [ ततः इतः ] तब फिर [ तद्-वस्तुस्थितिबोध-बन्ध्य-धिषणाः एते अज्ञानिनः ] जिनकी बुद्धि ऐसी वस्तुस्थिति के ज्ञानसे रहित है, ऐसे यह अज्ञानी जीव [ किम् सहजाम् उदासीनताम् मुञ्चन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति ] अपनी सहज उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं तथा रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? (इसप्रकार आचार्यदेवने सोच किया है।)
भावार्थ:-जैसे दीपकका स्वभाव घटपटादिको प्रकाशित करने का है
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