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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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प्रदीपोऽप्ययःकान्तोपलकृष्टाय:सूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तं प्रकाशयितुमायाति; किन्तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव प्रकाशते। स्वरूपेणैव प्रकाशमानस्य चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन् कमनीयोऽकमनीयो वा घटपटादिर्न मनागपि विक्रियायै कल्प्यते। तथा बहिरर्थाः शब्दो, रूपं, गन्धो, रसः, स्पर्शो , गुणद्रव्ये च , देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा , 'मां शृणु, मां पश्य, मां जिघ्र , मां रसय, मां स्पृश, मां बुध्यस्व' इति स्वज्ञाने नात्मानं प्रयोजयन्ति, न चात्माप्ययःकान्तोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तान् ज्ञातुमायाति; किन्तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव जानीते। स्वरूपेणैव जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन्तः कमनीया अकमनीया वा शब्दादशो बहिरा न मनागपि विक्रियायै कल्प्येरन्।
और दीपक भी लोहचुंबक-पाषाणसे खींची गई लोहे की सुई की भाँति अपने स्थानसे च्युत होकर उसे (बाह्यपदार्थको) प्रकाशित करने नहीं जाता; परंतु, वस्तुस्वभाव दूसरे से उत्पन्न नहीं किया जा सकता इसलिये तथा वस्तुस्वभाव परको उत्पन्न नहीं कर सकता इसलिये, दीपक जैसे बाह्यपदार्थकी समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है। उसीप्रकार बाह्यपदार्थकी समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है । (इसप्रकार ) अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है ऐसे दीपकको, वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त होता हुआ मनोहर या अमनोहर घटपटादि बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करता।
इसीप्रकार दृष्र्टात कहते हैं: बाह्य पदार्थ-शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श तथा गुण और द्रव्य-, जैसे देवदत्त यज्ञदत्तको हाथ पकड़कर किसी कार्यमें लगाता है उसीप्रकार, आत्माको स्वज्ञानमें (बाह्यपदार्थोंके जाननेके कार्यमें) नहीं लगाते कि 'तू मुझे सुन, तू मुझे देख , तू मुझे सूंघ, तू मुझे चख, तू मुझे स्पर्श कर, तू मुझे जान',
और आत्मा भी लोहचुंबक-पाषाणसे खींची हुई लोहेकी सुई की भाँति अपने स्थानसे च्युत होकर उन्हें (बाह्यपदार्थोंको) जानने को नहीं जाता; परंतु, वस्तुस्वभाव पर के द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता इसलिये तथा वस्तुस्वभाव परको उत्पन्न नहीं कर सकता इसलिये, आत्मा जैसे बाह्यपदार्थों की असमीपतामें (अपने स्वरूपसे ही जानता है) उसीप्रकार बाह्यपदार्थों की समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही जानता है। (इसप्रकार) अपने स्वरूपसे ही जानते हुए उस (आत्मा) को, वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त मनोहर अथवा अमनोहर शब्दादि बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करते।
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