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निर्जरा अधिकार
भुंजंतस्स वि विविहे सचित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे। संखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्हगो कादं।। २२० ।। तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे। भुजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ।। २२१ ।। जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदृण। गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे।। २२२ ।। तह णाणी वि हु जइया णाणसहावं तयं पजहिदूण। अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे।। २२३ ।।
[ कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत् ] कभी भी अज्ञान नहीं होता; [ ज्ञानिन् ] इसलिये हे ज्ञानी! [ भुक्ष्व ] तू (कर्मोदयजनित) उपभोगको भोग, [इह ] इस जगतमें [ परअपराध-जनितः बन्धः तव नास्ति] परके अपराधसे उत्पन्न होने वाला बंध तुझे नहीं है ( अर्थात् परके अपराधसे तुझे बंध नहीं होता।)
भावार्थ:-वस्तुका स्वभाव वस्तुके अपने आधीन ही है। इसलिये जो आत्मा स्वयं ज्ञानरूप परिणमित होता है उसे परद्रव्य अज्ञानरूप कभी भी परिणमित नहीं करा सकता। ऐसा होने से यहाँ ज्ञानीसे कहा है कि-तुझे परके अपराधसे बंध नहीं होता इसलिये तू उपभोगको भोग। तू ऐसी शंका मत कर कि उपभोगके भोगनेसे मुझे बंध होगा। यदि ऐसी शंका करेगा तो 'परद्रव्य से आत्माका बुरा होता है' ऐसी मान्यता का प्रसंग आ जायेगा। इसप्रकार यहाँ परद्रव्यसे अपना बुरा होना मानने की जीव शंका मिटाई है; यह नहीं समझना चाहिये कि भोग भोगने की प्रेरणा करके स्वच्छंद कर दिया है। स्वेच्छाचारी होना तो अज्ञानभाव है यह आगे कहेंगे। १५० ।
अब इसी अर्थको दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं:
ज्यों शंख विविध सचित्त, मिश्र, अचित्त वस्तू भोगते । पर शंखके शुक्लत्वको नहिं, कृष्ण कोई कर सके ।। २२० ।। त्यों ज्ञानी भी मिश्रित, सचित्त, अचित्त वस्तू भोगते । पर ज्ञान ज्ञानी का नहीं, अज्ञान कोई कर सके ।। २२१ ।। जब ही स्वयं वो शंख , तजकर स्वीय श्वेतस्वभाव को। पावे स्वयं कृष्णत्व तब ही, छोड़ता शुक्लत्वको ।। २२२ ।। त्यों ज्ञानी भी जब ही स्वयं निज, छोड़ ज्ञानस्वभावको। अज्ञानभावों परिणमे, अज्ञानता को प्राप्त हो ।। २२३ ।।
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