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समयसार
३३८
यथा खलु कनकं कर्दममध्यगतमपि कर्दमेन न लिप्यते, तदलेपस्वभावत्वात; तथा किल ज्ञानी कर्ममध्यगतोऽपि कर्मणा न लिप्यते, सर्वपरद्रव्यकृत-रागत्यागशीलत्वे सति तदलेपस्वभावत्वात्। यथा लोहं कर्दममध्यगतं सत्कर्दमेन लिप्यते, तल्लेपस्वभावत्वात; तथा किलाज्ञानी कर्ममध्यगतः सन् कर्मणा लिप्यते, सर्वपरद्रव्यकृतरागोपादानशीलत्वे सति तल्लेपस्वभावत्वात्।
(शार्दूलविक्रीडित) यादृक् तागिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तु नैष कथञ्चनापि हि परैरन्यादृशः शक्यते। अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्सन्ततं ज्ञानिन् भुक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव।। १५० ।।
[ लिप्यते तु] लिप्त होता है- [ यथा] जैसे [ लोहम् ] लोहा [कर्दममध्ये] कीचड़के बीच रहा हुआ लिप्त हो जाता है (अर्थात् उसे जंग लग जाती है)।
टीका:-जैसे वास्तवमें सोना कीचड़के बीच पड़ा हो तो भी वह कीचड़से लिप्त नहीं होता (अर्थात् उसे जंग नहीं लगती) क्योंकि उसका स्वभाव अलिप्त रहना है, क्योंकि उसका स्वभाव अलिप्त रहना है, उसीप्रकार वास्तवमें ज्ञानी कर्मोंके मध्य रहा हुआ हो तथापि वह उनसे लिप्त नहीं होता क्योंकि सर्व परद्रव्योंके प्रति किये जाने वाला राग उसका त्यागरूप स्वभावपना होनेसे ज्ञानी अलिप्त स्वभावी है। जैसे कीचड़के बीच पड़ा हुआ लोहा कीचड़से लिप्त हो जाता है (अर्थात् उसमें जंग लग जाती है) क्यों कि उसका स्वभाव कीचड़से लिप्त होना है, इसीप्रकार वास्तवमें अज्ञानी कर्मोंके मध्य रहा हुआ कर्मोंसे लिप्त हो जाता है क्योंकि सर्व परद्रच्योंके प्रति किये जाने वाला राग उसका ग्रहणरूप स्वभावपना होनेसे अज्ञानी कर्मसे लिप्त होनेके स्वभाववाला है।
भावार्थ:-जैसे कीचड़में पड़े हुए सोनेको जंग लगती नहीं और लोहेको लग जाती है, इसीप्रकार कर्मों के मध्य रहा हुआ ज्ञानी कर्मोंसे नहीं बँधता तथा अज्ञानी बँध जाता है। यह ज्ञान-अज्ञानकी महिमा है।
इस अर्थका और आगामी कथनका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] इस लोकमें [ यस्य याहक यः हि स्वभावः ताहक तस्य वशतः अस्ति ] जिस वस्तुका जैसा स्वभाव होता है उसका वैसा स्वभाव उस वस्तुके अपने वशसे ही ( अपने आधीन ही) होता है। [ एषः ] ऐसा वस्तुका स्वभाव वह, [ परैः] परवस्तुओं के द्वारा [ कथञ्चन अपि हि] किसी भी प्रकार से [अन्यादृशः ] अन्य जैसा [कर्तुं न शक्यते] नहीं किया जा सकता। [हि] इसलिये [ सन्ततं ज्ञानं भवत् ] जो निरंतर ज्ञानरूप परिणमित होता है वह
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