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( मन्दाक्रान्ता ) बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतन्नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्। एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।। १९२ ।।
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
इति मोक्षो निष्क्रान्तः।
इति मोक्षप्ररूपकः अष्टमोऽङ्कः।।
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समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
श्लोकार्थ:- [ बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत् ] कर्मबंधके छेदनेसे अतुल अक्षय ( अविनाशी ) मोक्षका अनुभव करता हुआ, [ नित्य-उद्योत– स्फुटित-सहज-अवस्थम् ] नित्य उद्योतवाली ( जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी ) सहज अवस्था जिसकी खिल उठी है ऐसा, [ एकान्त - शुद्धम् ] एकांत शुद्ध ( - कर्ममल के न रहनेसे अत्यंत शुद्ध ), [ एकाकार - स्व-रस- भरतः अत्यन्त - गम्भीर - धीरम् ] और एकाकार ( एक ज्ञानमात्र आकारमें परिणमित) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यंत गंभीर और धीर है ऐसा [ एतत् पूर्ण ज्ञानम् ] यह पूर्ण ज्ञान [ ज्वलितम् ] प्रकाशित हो उठा है (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ है ); और [ स्वस्य अचले महिम्नि लीनम् ] अपनी अचल महिमामें लीन हुआ है।
भावार्थ:-कर्मका नाश करके मोक्षका अनुभव करता हुआ, अपनी स्वाभाविक अवस्थारूप, अत्यंत शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोंको गौण करता हुआ, अत्यंत गंभीर (जिसका पार नहीं है ऐसा ) और धीर ( आकुलता रहित ) - ऐसा पूर्ण ज्ञान प्रगट दैदीप्यमान होता हुआ, अपनी महिमामें लीन हो गया । ९९२ ।
टीका:-इसप्रकार मोक्ष ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया।
भावार्थ:-रंगभूमिमें मोक्षतत्त्वका स्वांग आया था। जहाँ ज्ञान प्रगट हुआ वहाँ उस मोक्षका स्वांग रंगभूमिसे बाहर निकल गया ।
* सवैया *
ज्यों नर कोय पर्यो दृढबंधन बंधस्वरूप लखै दुखकारी, चिंत करै निति कैम कटे यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी । छेनकूं गहि आयुधधाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी ।। इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें मोक्षका प्ररूपक आठवाँ अंक समाप्त हुआ ।
ॐ
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