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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates -९सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार अथ प्रविशतिः सर्वविशुद्धज्ञानम्। (मन्दाक्रान्ता) नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लप्तेः। शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपूण्याचलार्चिष्टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः ।। १९३ ।। ---००० दोहा ०००--- सर्वविशुद्ध सुज्ञानमय, सदा आतमाराम । परकू करै न भोगवे, जानै जपि तसु नाम ।। प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि 'अब सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता मोक्षतत्त्वके स्वाँगके निकल जाने के बाद सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है। रंगभूमिमें जीव-अजीव, कर्ताकर्म, पुण्य-पाप, आस्रव , संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये आठ स्वांग आये, उनका नृत्य हुआ और वे अपना स्वरूप बताकर निकल गये। अब सर्व स्वाँगोंके दूर होनेपर एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है। उसमें प्रथम ही, मंगलरूपसे ज्ञानपुंज आत्माकी महिमाका काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [अखिलान् कर्तृ-भोक्त-आदि-भावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा] समस्त कर्ता-भोक्ता आदि भावोंको सम्यक् प्रकारसे (भलीभाँति) नाशको प्राप्त कराके [ प्रतिपदम् ] पद पद पर ( अर्थात् कर्मोंके क्षयोपशमके निमित्तसे होनेवाली प्रत्येक पर्यायमें) [ बन्ध-मोक्ष-प्रक्लप्तेः दूरीभूतः] बंध-मोक्षकी रचनासे दूर वर्तता हुआ, [शुद्धः शुद्धः] शुद्ध-शुद्ध (अर्थात् रागादिक मल तथा आवरणसे रहित), [ स्वरसविसर-आपूर्ण-पुण्य-अचल-अर्चिः ] जिसका पवित्र अचल तेज निजरसके (ज्ञानरसके, ज्ञानचेतनारूपी रसके) विस्तारसे परिपूर्ण है ऐसा, और [ टोत्कीर्णप्रकट-महिमा] जिसकी महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट है ऐसा यह, [अयं ज्ञानपुञ्जः स्फूर्जति ] ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट होता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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