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समयसार
(आर्या) यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।। ५१ ।।
(आर्या) एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य। एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः।। ५२ ।।
(आर्या) नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत। उभयोर्न परिणतिः स्वाद्यदनेकमनेकमेव सदा।। ५३ ।।
अब इसी अर्थका समर्थक कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यः परिणमति स कर्ता] जो परिणमित होता है वह कर्ता है, [ यः परिणामः भवेत् तत् कर्म ] ( परिणमित होने वाले का ) जो परिणाम है सो कर्म है [ तु] और [ या परिणतिः सा क्रिया ] जो परिणति है सो क्रिया है; [ त्रयम् अपि] यह तीनों, [ वस्तुतया भिन्नं न ] वस्तुस्वरूपसे भिन्न नहीं हैं।
भावार्थ:-द्रव्यदृष्टिसे परिणाम और परिणामीका अभेद है और पर्यायदृष्टिसे भेद है। भेददृष्टिसे तो कर्ता, कर्म और क्रिया यह तीन कहे गये हैं किन्तु यहाँ अभेददृष्टिसे परमार्थतः यह कहा गया कि कर्ता, कर्म और क्रिया-तीनों ही एक द्रव्यकी अभिन्न अवस्थायें हैं, प्रदेशभेदरूप भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं। ५१।
पुनः कहते हैं कि:
श्लोकार्थ:- [ एकः परिणमति सदा] वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, [ एकस्य सदा परिणामः जायते ] एकके ही सदा परिणाम होते हैं ( अर्थात् एक अवस्था से अन्य अवस्था एककी ही होती है) और [ एकस्य परिणतिः स्यात् ] एककी ही परिणति-क्रिया होती है; [ यतः] क्योंकि [अनेकम् अपि एकम् एव ] अनेकरूप होनेपर भी एक ही वस्तु है, भेद नहीं है।
भावार्थ:-एक वस्तुकी अनेक पर्यायें होती हैं; उन्हें परिणाम भी कहा जाता है और अवस्था भी कहा जाता है। वे संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदिसे भिन्न भिन्न प्रतिभासित होती है तथापि एक वस्तु ही हैं, भिन्न नहीं हैं; ऐसा ही भेदाभेदस्वरूप वस्तुका स्वभाव है। ५२।
और कहते हैं कि:
श्लोकार्थ:- [न उभौ परिणमतः खलु ] दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते, [ उभयोः परिणामः न प्रजायेत ] दो द्रव्योंका एक परिणाम नहीं होता और [ उभयोः परिणति: न स्यात् ] दो द्रव्योंकी एक परिणति-क्रिया नहीं होती;
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