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कर्ता-कर्म अधिकार
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(आर्या) नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य। नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात्।।५४ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) । आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकैदुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तमः। तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तत्कि ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः।। ५५ ।।
[ यत् ] क्योंकि जो [अनेकम् सदा अनेकम् एव ] अनेक द्रव्य हैं सो सदा अनेक ही हैं, वह बदल कर एक नहीं हो जाते।
भावार्थ:-जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेशभेदवाली ही हैं। दोनों एक होकर परिणमित नहीं होती, एक परिणाम को उत्पन्न नहीं करती और उनकी एक क्रिया नहीं होती -ऐसा नियम है। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्योंका लोप हो जाये। ५३।
पुनः इस अर्थको दृढ़ करते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एकस्य हि द्वौ कर्तारौ न स्त: ] एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते, [च ] और [ एकस्य द्वे कर्मणी न ] एक द्रव्यकें दो कर्म नहीं होते [च ] और [ एकस्य द्वे क्रिये न] एक द्रव्यकी दो क्रियाएँ नहीं होती; [ यतः ] क्योंकि [ एकम् अनेकं न स्यात् ] एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता।
भावार्थ:-इसप्रकार उपरोक्त श्लोकोमें निश्चयनयसे अथवा शुद्धद्रव्यार्थिकनय से वस्तुस्थितिका नियम कहा है। ५४।
आत्माके अनादिसे परद्रव्यके कर्ताकर्मपनेका अज्ञान है यदि वह परमार्थनयके ग्रहणसे एक बार भी विलय को प्राप्त हो जाये तो फिर न आये, अब ऐसा कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह] इस जगतमें [ मोहिनाम् ] मोही (अज्ञानी) जीवोंका [ परं अहम् कुर्वे ] परद्रव्यको मैं करता हूँ' [इति महाहङ्काररूपं तमः] ऐसा परद्रव्य के कर्तृत्वका महा अहंकाररूप अज्ञानांधकार- [ननु उच्चकैः दुर्वारं] जो अत्यंत दुर्निवार है वह- [आसंसारतः एव धावति] अनादि संसारसे चला आ रहा है। आचार्य कहते है कि: [ अहो] अहो! [ भूतार्थपरिग्रहेण ] परमार्थनयका अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनयका ग्रहण करनेसे [ यदि ] यदि [ तत् एकवारं विलयं व्रजेत् ] वह एक बार भी नाश को प्राप्त हो [ तत् ] तो [ ज्ञानघनस्य आत्मन:] ज्ञानघन आत्माको [ भूयः ] पुन: [बन्धनम् किं भवेत् ] बंधन कैसे हो सकता है ? (जीव ज्ञानघन है इसलिये यथार्थ ज्ञान होने के बाद ज्ञान कहाँ जा सकता है ? और जब ज्ञान नहीं जाता तब फिर अज्ञानसे बंध कैसे हो सकता है ? )
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