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समयसार
१५८
(अनुष्टुभ् ) आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः। आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते।।५६ ।।
भावार्थ:-यहाँ तात्पर्य यह है कि-अज्ञान तो अनादिसे ही है परंतु परमार्थनयके ग्रहणसे, दर्शनमोहका नाश होकर, एक बार यथार्थ ज्ञान होकर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होतो पुनः मिथ्यात्व न आये। मिथ्यात्व न आनेसे मिथ्यात्वका बंध भी न हो। और मिथ्यात्व के जाने के बाद संसारका बंधन कैसे रह सकता है ? नहीं रह सकता अर्थात् मोक्ष ही होता है ऐसा जानना चाहिये। ५५ ।
अब पुनः विशेषतापूर्वक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [आत्मा] आत्मा तो [ सदा] सदा [आत्मभावान् ] अपने भावोंको [ करोति ] करता है और [ परः] परद्रव्य [ परभावान् ] परके भावोंको करता है; [ हि ] क्योंकि जो [ आत्मनः भावाः] अपने भाव हैं सो तो [ आत्मा एव] आप ही हैं और जो [ परस्य ते ] परके भाव हैं सो [ परः एव ] पर ही है [ओ नियम छ।] ।
(परद्रव्यके कर्ताकर्मपनेकी मान्यताको अज्ञान कहकर यह कहा है कि जो ऐसा मानता है सो मिथ्यादृष्टि है; यहाँ आशंका उत्पन्न होती है कि यह मिथ्यात्वादि भाव क्या वस्तु है ? यदि उन्हें जीवका परिणाम कहा जाये तो पहले रागादि भावोंको पुद्गलका परिणाम कहा था उस कथनके साथ विरोध आता है; और यदि उन्हें पुद्गलका परिणाम कहा जाये तो जिनके साथ जीवको कोई प्रयोजन नहीं है उनका फल जीव क्यों प्राप्त करे ? इस आशंकाको दूर करनेके लिये अब गाथा कहते हैं:-)
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