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समयसार
२२
एवं सति यः आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव। एवं ज्ञानज्ञानिनोर्मेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किञ्चिदप्यतिरिक्तम्। अथ च यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति।
कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत्ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।। ११ ।।
व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः। भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः।। ११ ।।
ऐसा होनेसे ‘जो आत्माको जानता है, वह श्रुतकेवली है' ऐसा ही घटित होता है; और वह तो परमार्थ ही है। इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेदसे कहनेवाला जो व्यवहार है उससे भी परमार्थमात्र ही कहा जाता है, उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता। और “जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं,” इसप्रकार परमार्थका प्रतिपादन करना अशक्य होनेसे , “जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं" ऐसा व्यवहार परमार्थके प्रतिपादकत्वसे अपनेको दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है।
भावार्थ:- जो शास्त्रज्ञानसे अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवली है, यह तो परमार्थ (निश्चय कथन) है। और जो सर्व शास्त्रज्ञानको जानता है उसने भी ज्ञानको जाननेसे आत्माको ही जाना है, क्योंकि जो ज्ञान है वह आत्मा ही है; इसलिये ज्ञान-ज्ञानीके भेदको कहनेवाला जो व्यवहार उसने भी परमार्थ ही कहा है, अन्य कुछ नहीं कहा। और परमार्थका विषय तो कथंचित् वचनगोचर भी नहीं है, इसलिये व्यवहारनयही आत्माको प्रगटरूपसे कहता है, ऐसा जानना चाहिये।
अब, यह प्रश्न उपस्थित होता है कि -पहले यह कहा था कि व्यवहारको अंगीकार नहीं करना चाहिये, किन्तु यदि वह परमार्थको कहनेवाला है तो ऐसे व्यवहारको क्यों अंगीकार न किया जाये ? इसके उत्तररूपमें गाथासूत्र कहते हैं :
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ है।
भूतार्थ आश्रित आत्मा, सदृष्टि निश्चय होय है।।११।। गाथार्थ :- [व्यवहार: ] व्यवहारनय [अभूतार्थः] अभूतार्थ है [ तु] और [ शुद्धनयः ] शुद्धनय [ भूतार्थ: ] भूतार्थ है, ऐसा [ दर्शितः ] ऋषीश्वरोंने बताया है; [ जीवः ] जो जीव [ भूतार्थ] भूतार्थका [अश्रित:] आश्रय लेता है वह जीव [ खलु] निश्चसे ( वास्तवमें ) [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दष्टि [ भवति ] है।
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