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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम्। तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदीपकाराः।।९।। यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिनाः। ज्ञानमात्मा सर्व यस्माच्छ्रुतकेवली तस्मात्।। १० ।। युग्मम्। यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो; यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः। तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनात्मा, समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपञ्चतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः। ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति। अतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात्। गाथार्थ:- [ यः ] जो जीव [ हि] निश्चयसे [ श्रुतेन तु] श्रुतज्ञानके द्वारा [ इमं] इस अनुभवगोचर [ केवलं शुद्धम् ] केवल एक शुद्ध [ आत्मानम् ] आत्माको [ अभिगच्छति ] सन्मुख होकर जानता है [ तं] उसे [ लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रगट जाननेवाले [ऋषयः] ऋषीश्वर [ श्रुतकेवलिनम् ] श्रुतकेवली [भणन्ति] कहते है; [ यः] जो जीव [ सर्वं ] सर्व [ श्रुतज्ञानं] श्रुतज्ञानको [ जानाति] जानता है [ तम् ] उसे [ जिनाः] जिनदेव [ श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवली [आहुः] कहते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानम् सर्वं] ज्ञान सब [ आत्मा] आत्मा ही है [ तस्मात् ] इसलिये [ श्रुतकेवली ] ( वह जीव ) श्रुतकेवली है। टीका :- प्रथम, “जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं" यह तो परमार्थ है; और “जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं” वह व्यवहार है। यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं-उपरोक्त सर्व ज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्माका पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त जड़रूप अनात्मा आकाशादिक पांच द्रव्य हैं, उनका ज्ञानके साथ तादात्म्य बनता ही नहीं (क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है)। इसलिये अन्य पक्षका अभाव होनेसे 'ज्ञान आत्मा ही है' यह पक्ष सिद्ध हुआ। इसलिये श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। इस आत्मको श्रुतसे नियत, जो शुद्ध केवल जानते। ऋषिगण प्रकाशक लोकके, श्रुतकेवली उसको कहें।।९।। श्रुतज्ञान सब जानें जु, जिन श्रुतकेवली उसको कहे। सब ज्ञान सो आत्मा हि है, श्रुतकेवली उससे बने ।।१०।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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