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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
( उपजाति) उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत् तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्ते: पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह ।। २३६ ।। (अनुष्टुभ् )
व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्। कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शङ्क्यते।। २३७ ।।
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धारण करता हुआ), [ आदान- उज्झन - शून्यम् ] ग्रहण - त्यागसे रहित, [ एतत् अमलं ज्ञानं] यह अमल ( - रागादिक मलसे रहित ) ज्ञान [ तथा-अवस्थितम् यथा ] इसप्रकार अवस्थित ( - निश्चल) अनुभवमें आता है कि जैसे [ मध्य - आदि - अन्तविभाग-मुक्त-सहज-स्फार - प्रभा - भासुरः अस्य शुद्ध - ज्ञान - घनः महिमा आदिमध्य-अंतरूप विभागोंसे रहित ऐसी सहज फैली हुई प्रभाके द्वारा दैदीप्यमान ऐसी उसकी शुद्धज्ञानघनरूप महिमा [ नित्य - उदितः तिष्ठति ] नित्य-उदित रहे ( - शुद्ध ज्ञानकी पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे)।
भावार्थ:-ज्ञानका पूर्ण रूप सबको जानना है। वह जब प्रगट होता है तब सर्व विशेषणोंसे सहित प्रगट होता है; इसलिये उसकी महिमा को कोई बिगाड़ नहीं सकता, वह सदा उदयमान रहती है । २३५।
‘ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्माका आत्मामें धारण करना सो ही ग्रहण करने योग्य सब कुछ ग्रहण किया और त्यागने योग्य सब कुछ त्याग किया है' – इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ संहृत-सर्व- शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः ] जिसने सर्व शक्तियोंको समेट लिया है ( -अपनेमें लीन कर लिया है ) ऐसे पूर्ण आत्माका [ आत्मनि इह ] आत्मामें [यत् सन्धारणम् ] धारण करना [ तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम्] वही छोड़ने योग्य सब कुछ छोड़ा है [ तथा ] और [ आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम् ] ग्रहण करने योग्य सब ग्रहण किया है।
भावार्थ:-पूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तियोंका समूहरूप जो आत्मा है उसे आत्मामें धारण कर रखना सो यही, जो कुछ त्यागने योग्य था उस सबको त्याग दिया और ग्रहण करने योग्य जो कुछ था उसे ग्रहण किया। यही कृतकृत्यता है।
२३६ ।
'ऐसे ज्ञानको देह ही नहीं है ' - इस अर्थका आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
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