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समयसार
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अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं। आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु।। ४०५।। ण वि सक्कदि घेत्तुं जंण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं । सो को वि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि।। ४०६ ।। तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि। णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं।। ४०७ ।।
आत्मा यस्यामूर्तो न खलु स आहारको भवत्येवम्। आहारः खलु मूर्तो यस्मात्स पुद्गलमयस्तु।। ४०५।। नापि शक्यते ग्रहीतुं यत् न विमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यम्। स कोऽपि च तस्य गुणः प्रायोगिको वस्रसो वाऽपि।। ४०६ ।।
श्लोकार्थ:- [ एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम् ] इसप्रकार (पूर्वोक्त रीतीसे) ज्ञान परद्रव्यसे पृथक् अवस्थित (-निश्चल रहा हुआ) है; [ तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य देहः शङ्कयते ] वह (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्मनोकर्मरूप आहार करने वाला) कैसे हो सकता है कि जिससे उसके देहकी शंका कि जा सके ? ( ज्ञानके देह हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है।) २३७।
अब इस अर्थको गाथाओंमें कहते हैं:
यों आतमा जिसका अमूर्तिक वो न आहारक बने । पुद्गलमयी आहार यों आहार तो मूर्तिक अरे ।। ४०५।। जो द्रव्य है पर, ग्रहण नहिं, नहिं त्याग उसका हो सके। ऐसा ही उसका गुण कोई प्रायोगि अरु वैनसिक है ।। ४०६ ।। इस हेतु से जो शुद्ध आत्मा वो नहीं कुछ भी ग्रहे । छोड़े नहीं कुछ भी अहो! परद्रव्य जीव अजीव में ।। ४०७।।
गाथार्थ:- [ एवम् ] इसप्रकार [ यस्य आत्मा ] जिसका आत्मा [अमूर्तः ] अमूर्तिक है [ सः खलु ] वह वास्तव में [ आहारकः न भवति] आहारक नहीं है; [ आहारः खलु ] आहार तो [ मूर्तः ] मूर्तिक है [ यस्मात् ] क्योंकि [ सः तु पुद्गलमयः ] वह पुद्गलमय है।
[ यत परद्रव्यम् ] जो परद्रव्य है [ न अपि शक्यते ग्रहीतुं यत् ] वह ग्रहण नहीं किया जा सकता [ न विमोक्तुं यत् च ] और छोड़ा नहीं जा सकता
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