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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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तस्मात्तु यो विशुद्धश्चेतयिता स नैव गृह्णाति किञ्चित्। नैव विमुञ्चति किञ्चिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययोः।। ४०७ ।।
ज्ञानं हि परद्रव्यं किञ्चिदपि न गृह्णाति न मुञ्चति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैनसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात्। परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः। ततो ज्ञानं नाहारकं भवति। अतो ज्ञानस्य देहो न शङ्कनीयः।
[ सः कः अपि च ] ऐसा ही कोई [ तस्य ] उसका (-आत्माका) [ प्रायोगिकः वा अपि वैस्रसः गुण ] प्रायोगिक तथा वैनसिक गुण है।
[तस्मात् तु] इसलिये [यः विशुद्धः चेतयिता] जो विशुद्ध आत्मा है [ सः] वह [जीवाजीवयोः द्रव्ययोः ] जीव और अजीव द्रव्योंमें (-परद्रव्योंमें) [ किञ्चित् न एव गृह्णाति ] कुछ भी ग्रहण नहीं करता [ किञ्चित् अपि न एव विमुञ्चति ] तथा कुछ भी त्याग नहीं करता।
टीका:-ज्ञान परद्रव्यको किंचित्मात्र न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है, क्योंकि प्रायोगिक ( अर्थात् पर निमित्तसे उत्पन्न) गुणकी सामर्थ्यसे तथा वैस्रसिक ( अर्थात् स्वाभाविक) गुणकी सामर्थ्य से ज्ञानके द्वारा परद्रव्यका ग्रहण तथा त्याग करना अशक्य है। और, (कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञानका अमूर्तिक आत्मद्रव्यका-आहार नहीं है, क्योंकि वह मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है; ( अमूर्तिकके मूर्तिक आहार नहीं होता)। इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है। इसलिये ज्ञानके देहकी शंका नहीं करनी चाहिये।
(यहाँ 'ज्ञान' से 'आत्मा' समझना; क्योंकि, अभेद विवक्षासे लक्षणमें ही लक्ष्यका व्यवहार किया जाता है। इस न्यायसे टीकाकार आचार्यदेव आत्माको ज्ञान ही कहते आये हैं।)
भावार्थ:-ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है और आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक है; इसलिये परमार्थतः आत्माके पुद्गलमय आहार नहीं है। और आत्माका ऐसा ही स्वभाव है कि वह परद्रव्यको कदापि ग्रहण नहीं करता;-स्वभावरूप परिणमित हो या विभावरूप परिणमित हो, अपने ही परिणामका ग्रहणत्याग होता है, परद्रव्यका ग्रहण-त्याग तो किंचित्मात्र भी नहीं होता।
इसप्रकार आत्माके आहार न होनेसे उसके देह ही नहीं है।
जब कि आत्माके देह है ही नहीं, इसलिये पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (वेष, बाह्य चिह्न) मोक्षका कारण नहीं है-इस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक काव्य कहते है :
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