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समयसार
५६८
(अनुष्टुभ् ) एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते। ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम्।। २३८ ।।
पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि। घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।। ४०८ ।। ण दु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंति।। ४०९ ।।
पाषण्डिलिङ्गानि वा गृहिलिङ्गानि वा बहुप्रकाराणि। गृहीत्वा वदन्ति मूढा लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति।। ४०८।। न तु भवति मोक्षमार्गो लिङ्गं यद्देहनिर्ममा अर्हन्तः। लिङ्ग मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते।। ४०९।।
श्लोकार्थ:- [ एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते] इसप्रकार शुद्धज्ञानके देह ही नहीं है; [ ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न] इसलिये ज्ञाताको देहमय चिह मोक्षका कारण नहीं है। अब इसी अर्थको गाथाओं द्वारा कहते हैं:
मुनिलिंगको अथवा गृहस्थीलिंगको बहुभाँतिके । ग्रहकर कहत है मूढजन 'यह लिंग मुक्तिमार्ग है'।। ४०८ ।। वह लिंग मुक्तिमार्ग नहिं, अहंत निर्मम देहमें । बस लिंग तजकर ज्ञान अरु चारित्र, दर्शन सेवते।। ४०९।।
गाथार्थ:- [ बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [ पाषण्डिलिङ्गानि वा ] मुनिलिंगोंको [ गृहिलिङ्गानि वा] अथवा गृहीलिंगोंको [गृहीत्वा] ग्रहण करके [ मूढाः] मूढ (अज्ञानी) जन [ वदन्ति ] यह कहते हैं कि [इदं लिङ्गम् ] यह (बाह्य) लिंग [ मोक्षमार्गः इति ] मोक्षमार्ग है'।
[तु] परंतु [ लिङ्गम् ] लिंग [ मोक्षमार्गः न भवति ] मोक्षमार्ग नहीं है; [ यत् ] क्योंकि [अर्हन्तः] अर्हतदेव [ देहनिर्ममाः] देह के प्रति निर्मम वर्तते हुये [ लिङ्गम् मुक्त्वा ] लिंगको छोड़कर [ दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र का ही सेवन करते है।
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