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समयसार
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___ (शार्दूलविक्रीडित) अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम्। मध्याद्यन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभासुरः । शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति।। २३५।।
सकता, और कितने ही (धर्म) परद्रव्यके निमित्तसे हुए हैं उन्हें कहने से परमार्थभूत आत्माका शुद्ध स्वरूप कैसे जाना जा सकता है ? इसलिये ज्ञानके कहनेसे ही छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको पहिचान सकता है ।
यहाँ ज्ञानको आत्माका लक्षण कहा है इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानको ही आत्मा कहा है; क्योंकि अभेदविवक्षामें गुणगुणीका अभेद होनेसे , ज्ञान है सो ही आत्मा है। अभेदविवक्षामें ज्ञान कहो या आत्मा कहो-कोई विरोध नहीं है; इसलिये यहाँ ज्ञान कहनेसे आत्मा ही समझना चाहिये।
टीकामें अंत में यह कहा गया है कि-जो, अपने में अनादि अज्ञानसे होनेवाले शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्तिको दूर करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें प्रवृत्तिरूप स्वसमयको प्राप्त करके, उस स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें अपने को परिणमित करके, संपूर्णविज्ञानघनस्वभावको प्राप्त हुआ है, और जिसमें कोई त्याग-ग्रहण नहीं है, ऐसे साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चल रहा हुआ, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानको ( पूर्ण आत्म द्रव्यको) देखना चाहिये। यहाँ ‘देखना' तीन प्रकारसे समझना चाहिये। १-शुद्धनयका ज्ञान करके पूर्ण ज्ञान श्रद्धान करना सो प्रथम प्रकारका देखना है। वह अविरत आदि अवस्थामें भी होता है। २-ज्ञान-श्रद्धान होनेके बाद बाह्य सर्व परिग्रहका त्याग करके उसका (–पूर्ण ज्ञानका) अभ्यास करना, उपयोगको ज्ञानमें ही स्थिर करना, जैसे शुद्धनयसे अपने स्वरूपको सिद्ध समान जाना-श्रद्धान किया था वैसे ही ध्यानमें लेकर चित्तको एकाग्र-स्थिर करना, और पुनः पुनः उसी का अभ्यास करना, सो दूसरे प्रकार का देखना है। इसप्रकार देखना अप्रमत्त दशामें होता है। जहाँ तक उस प्रकार के अभ्याससे केवलज्ञान उत्पन्न न हो वहाँ तक ऐसा अभ्यास निरंतर रहता है। यह, देखनेका दूसरा प्रकार हुआ। यहाँ तक तो पूर्ण ज्ञानका शुद्धनयके आश्रयसे परोक्ष देखना है। और ३-जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब साक्षात् देखना है सो यह तीसरे प्रकारका देखना है। उस स्थितिमें ज्ञान सर्व विभावोंसे रहित होता हुआ सबका ज्ञाता-दृष्टा है, इसलिये यह तीसरे प्रकार का देखना पूर्ण ज्ञानका प्रत्यक्ष देखना है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम् ] अन्य द्रव्योंसे भिन्न, [ आत्म-नियतं] अपने में ही नियत, [ पृथक्-वस्तुताम् बिभ्रत् ] पृथक् वस्तुत्वको धारण करता हुआ (-वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक होनेसे स्वयं भी सामान्यविशेषात्मकताको
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