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समयसार
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(मन्दाक्रान्ता) टोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं नन्ति लक्ष्माणि कर्म। तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाकर्मणो नास्ति बन्धः
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव।। १६१ ।। जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे। सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २२९ ।। यश्चतुरोऽपि पादान छिनत्ति तान् कर्मबन्धमोहकरान्। स निरशङ्कश्चेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ।। २२९ ।।
अब आगेकी ( सम्यग्दृष्टिके निःशंकित आदि चिह्नों सम्बन्धी) गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [टकोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टे:] टंकोत्कीर्ण निज रससे परिपूर ज्ञानके सर्वस्वको भोगनेवाले सम्यग्दृष्टिके [ यद् इह लक्ष्माणि] जो निःशंक्ति आदि चिह्न हैं वे [ सकलं कर्म] समस्त कर्मोंको [ध्नन्ति ] नष्ट करते हैं; [ तत् ] इसलिये, [ अस्मिन् ] कर्मका उदय वर्तता होनेपर भी, [ तस्य] सम्यग्दृष्टिको [पुनः ] पुनः [ कर्मणः बन्धः] कर्मका बंध [ मनाक् अपि] किंचित्मात्र भी [ नास्ति] नहीं होता, [ पूर्वोपात्तं] परंतु जो कर्म पहले बंधा था [ तद्-अनुभवतः] उसके उदयको भोगनेपर उसको [ निश्चितं] नियमसे [निर्जरा एव] उस कर्मकी निर्जरा ही होती है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि पहले बंधी हुई भय आदि प्रकृतियोंके उदयको भोगता है तथापि 'निःशंकित आदि गुणोंके विद्यमान होनेसे उसे शंकादिकृत (शंकादिके निमित्तसे होनेवाला) बंध नहीं होता किन्तु पूर्वकर्मकी निर्जरा ही होती है। १६१।
अब इस कथनको गाथाओं द्वारा कहते हैं, उसमेंसे पहले निःशंकित अंगकी ( अथवा निःशंकित गुणकी-चिह्नकी) गाथा इसप्रकार हैं:
जो कर्मबंधनमोहकर्ता, पाद चारों छेदता ।
चिन्मूर्ति वो शंकारहित , सम्यक्त्वदृष्टि जानना ।। २२९ ।। गाथार्थ:- [यः चेतयिता] जो *चेतयिता, [कर्मबन्धमोहकरान् ] कर्मबंध संबंधी मोह करनेवाले ( अर्थात् जीव निश्चयसे कर्म द्वारा बँधा हुआ है ऐसा भ्रम
२। शंका = संदेह; कल्पित भय। * चेतयिता =
१। निःशंकित = संदेह अथवा भय रहित। चेतनेवाला; जानने-देखनेवाला; आत्मा।
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