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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निर्जरा अधिकार ३५१ _ ( शार्दूलविक्रीडित) एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्ध किलैतत्स्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः। तन्नाकस्मिकमत्र किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१६० ।। अब आकस्मिकभयका काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान एक है, [अनादि] अनादि है, [अनन्तम् ] अनंत है, [अचलं ] अचल है। [इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत् ] वह जबतक है तबतक सदा ही वही है, [अत्र द्वितीयोदय: न] उसमें दूसरेका उदय नहीं है। [ तत्] इसलिये [ अत्र आकस्मिकम् किञ्चन न भवेत् ] इस ज्ञानमें आकस्मिक कुछ भी नहीं होता। [ ज्ञानिनः तद्-भी: कुतः] ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अकस्मातका भय कहाँसे हो सकता है ? [ सः स्वयं सततं निरशङ्कसहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है। भावार्थ:- यदि कुछ अनिर्धारित-अनिष्ट एकाएक उत्पन्न होगा तो ?' ऐसा भय रहना आकस्मिकभय है। ज्ञानी जानता है कि-आत्माका ज्ञान स्वतःसिद्ध, अनादि, अनंत, अचल, एक है। उसमें दूसरा कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता; इसलिये उसमें कुछ भी अनिर्धारित कहाँ से होगा अर्थात् अकस्मात् कहाँ से होगा? ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको आकस्मिक भय नहीं होता, वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानभावका निरंतर अनुभव करता है। इसप्रकार ज्ञानीको सात भय नहीं होते। प्रश्न:-अविरतसम्यग्दृष्टि आदिको भी ज्ञानी कहा है और उनके भयप्रकृतिका उदय होता है तथा उसके निमित्तसे उनके भय होता हुआ भी देखा जाता है, तब फिर ज्ञानी निर्भय कैसे हैं ? समाधान:-भयप्रकृतिके उदयके निमित्तसे ज्ञानीको भय उत्पन्न होता है। और अंतरायके प्रबल उदयसे निर्बल होनेके कारण उस भयकी वेदना को सहन न कर सकनेसे ज्ञानी उस भयका इलाज भी करता है। परंतु उसे ऐसा भय नहीं होता कि जिससे जीव स्वरूपके ज्ञानश्रद्धानसे च्युत हो जाये। और जो भय उत्पन्न होता है वह मोहकर्मकी भय नामक प्रकृतिका दोष है; ज्ञानी स्वयं उसका स्वामी होकर कर्ता नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है। इसलिये ज्ञानीके भय नहीं। १६०। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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