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पूर्वरंग
६३
इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः समावर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेकस्कन्धव्यवहारवव्यवहारमात्रेणैवैकत्वं, न पुनर्निश्चयतः, निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोगानुपयोगस्वभावयोः
कनककलधौतयोः पीतपाण्डुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यन्तव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुपपत्ते: नानात्वमेवेति। एवं हि किल नयविभागः। ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमूपपन्नम्।
तथा हिइणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं ।। २८ ।।
इदमन्यत् जीवाद्देहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः। मन्यते खलु संस्तुतो वन्दितो मया केवली भगवान्।। २८ ।।
टीका:- जैसे इस लोकमें सोना और चांदीको गलाकर एक कर देनेसे एकपिंडका व्यवहार होता है उसीप्रकार आत्मा और शरीरकी परस्पर एक क्षेत्रमें रहनेकी अवस्था होनेसे एकपनेका व्यवहार होता है। यों व्यवहारमात्रसे ही आत्मा और शरीरका एकपना है, परंतु निश्चयसे एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चयसे देखा जाये तो, जैसा पीलापन आदि और सफेदी आदि जिसका स्वभाव है ऐसे सोने और चाँदीमें अत्यंत भिन्नता होनेसे उनमें एकपदार्थपनेकी असिद्धि है, इसलिये अनेकत्व ही है, इसीप्रकार उपयोग और अनुपयोग जिनका स्वभाव है ऐसे आत्मा और शरीरमें अत्यंत भिन्नता होनेसे एकपदार्थपनेकी असिद्धि है इसलिये अनेकत्व ही है। ऐसा यह प्रगट नयविभाग है। इसलिये व्यवहारनयसे ही शरीरके स्तवनसे आत्माका स्तवन होता है।
भावार्थ:- व्यवहारनय तो आत्मा और शरीरको एक कहता है और निश्चयनय से भिन्न है। इसलिये व्यवहारनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन माना जाता है।
यही बात इस गाथामें कहते हैं:
जीवसे जुदा पुद्गलमयी, इस देहकी स्तवना करी।
माने मुनिसो केवली, वंदन हुआ स्तवना हुई।।२८।। गाथार्थ:- [जीवात् अन्यत् ] जीवसे भिन्न [इदम् पुद्गलमयं देहं ] इस पुद्गलमय देहकी [ स्तुत्वा ] स्तुति करके [ मुनिः ] साधु [ मन्यते खलु ] ऐसा मानते हैं कि [ मया ] मैंने [ केवली भगवान् ] केवली भगवानकी [ स्तुतः ] स्तुति की और [ वन्दितः ] वंदना की।
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