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कर्ता-कर्म अधिकार
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अतोऽन्यस्तूपचार:
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणाम। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण।। १०५ ।।
जीवे हेतुभूते बन्धस्य तु दृष्ट्वा परिणामम्। जीवेन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्रेण ।। १०५ ।।
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनानिमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिक कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः। स तूपचार एव, न तु परमार्थः।
जीव हेतुभूत हुआ अरे! परिणाम देख जु बंधका । उपचारमात्र कहाय यों यह कर्म आत्माने किया ।। १०५ ।।
गाथार्थ:- [जीवे ] जीव [ हेतुभूते ] निमित्तभूत्त होनेपर [ बन्धस्य तु] कर्म बंधका [परिणामम् ] परिणाम होता हुआ [दृष्ट्वा ] देखकर, [ जीवेन] जीवने [ कर्म कृतं ] कर्म किया' इसप्रकार [ उपचारमात्रेण ] उपचारमात्रसे [ भण्यते ] कहा जाता है।
___टीका:-इस लोकमें वास्तवमें आत्मा स्वभावसे पौद्गलिक कर्मका निमित्तभूत न होनेपर भी, अनादि अज्ञानके कारण पौद्गलिक कर्मको निमित्तरूप होते हुवे अज्ञानभावमें परिणमता होनेसे निमित्तभूत होनेपर, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न होता है, इसलिये ‘पौद्गलिक कर्म आत्माने किया' ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावसे, भ्रष्ट , विकल्पपरायण अज्ञानियोंका विकल्प है; वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं।
भावार्थ:-कदाचित् होनेवाले निमित्तनैमित्तिकभावमें कर्ताकर्मभाव कहना सो उपचार है।
अब, यह उपचार कैसे है सो दृष्टांतसे कहते हैं:
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