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समयसार
कथमज्ञानात्कर्म प्रभवतीति चेत्
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोऽहं । कत्ता तस्सुवओगस्सं होदि सो अत्तभावस्स त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति क्रोधोऽहम् । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।। ९४ ।।
९४ ।।
एष
खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविध: सविकारश्चैतन्यपरिणामः परात्मनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य भावापन्नयोश्चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोऽहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति ततोऽयमात्मा भ्रान्त्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्म मनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्प्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि
क्रोधोऽहमिति
षोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
भाव्यभावक
अब यह प्रश्न करता है कि अज्ञानसे कर्म कैसे उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं:
' मैं क्रोध ' आत्मविकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरे ।
तब जीव उस उपयोगरूप, जीवभावका कर्ता बने ।। ९४ ।।
गाथार्थ:- [ त्रिविधः ] तीन प्रकारका [ एषः ] यह [ उपयोगः ] उपयोग [ अहम् क्रोधः ] 'मैं क्रोध हूँ' ऐसा [ आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [ करोति ] करता है; इसलिये [सः] आत्मा [ तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [ आत्मभावस्य ] अपने भावका [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] होता है।
टीका:- वास्तवमें यह सामान्यता अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन–अज्ञान– अविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे और अविशेष रति ( लीनता) से समस्त भेदको छिपाकर, भाव्यभावकभावको प्राप्त चेतन और अचेतनका सामान्य अधिकरणसे ( - मानों उनका एक आधार हो इसप्रकार ) अनुभव करनेसे, ' मैं क्रोध हूँ' ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये ‘मैं क्रोध हूँ' ऐसी भ्रांतिके कारण जो सविकार (विकारयुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सविकार चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है । इसीप्रकार ' क्रोध' पद को बदलकर मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूपसे लेना चाहिये; और इस उपदेशसे दूसरे भी विचार करना चाहिये।
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